खो गया गांव

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हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में प्राचीनकाल से लेकर वर्तमान युग तक जिन साहित्य विधाओं का विकास हुआ उनमें कहानी का अनन्तम स्थान है।

पुस्तक समीक्षा

श्रीमती अपर्णा शर्मा, ‘खो गया गांव’ (कहानी संग्रह), दिल्ली: माउण्ट बुक्स, 2010, (पृ. 112, मूल्य: रु. 220/-, ISBN: 978-81-90911-09-7-8
                                                                                                                   
   आशा मीणा
                                                                                                                शोधार्थी, भारतीय भाषा केन्द्र                                                                                                        भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अध्ययन संस्थान
                जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय 
                                                   नई दिल्ली दूरध्वनिः  + 91-07891410638 
                                                             ई-मेलः <rkverma1984@gmail.com>

हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में प्राचीनकाल से लेकर वर्तमान युग तक जिन साहित्य विधाओं का विकास हुआ उनमें कहानी का अनन्तम स्थान है। अनेक गंभीर और बहुत से हल्के - फुल्के रोचक साहित्य स्वरूपों के विद्यमान होते हुए भी कहानी का अपना महत्व है। हिन्दी साहित्य की विधाओं में संभवतः कहानी ही एक मात्र ऐसा, माध्यम है, जो अपने लघु परिवेश में भी वृहत् जीवन को अभिव्यंजित कर देने में  समर्थ है। गंभीर साहित्य की
खो गया गांव
अपेक्षा रखने वाले पाठकों को कहानी में चिंतन दर्शन की सामग्री मिलती है, और सामयिक मनोरंजन की इच्छा रखने वाले व्यक्ति को भी इससे मनःसंतुष्टि होती हैं। इसलिए विश्व की प्रत्येक भाषा में जहां एक ओर अनेक गंभीर और वृहत् साहित्यिक स्वरूपों की परम्परा मिलती है, वहीं दूसरी ओर कहानी का अपना एक अलग महत्वपूर्ण स्थान है।
कहा जाता है की आदि मानव जीवन के साथ ही कहानी का जन्म हुआ। इसलिए राजेन्द्र यादव लिखते है। “मैं कहानी को आदि विधा मानता हूँ, वह गद्य में लिखी गई हो या पद्य में लिखी गई हो, इससे पहले भी संकतो में। पद्य या गीतो के माध्य से स्वयं उनका रस ग्रहण करते हुए इन सबके पीछे  ‘नेपथ्य’ में चलने वाली कहानी ही प्रमुख रही है।”1 भारतीय साहित्य के वैदिक वांगमय से लेकर पुराणों, उपनिषदों, जातक कथाओं और पंचतंत्र आदि में कहानी के प्राचीन स्वरूप को देखा जा सकता है। आधुनिक कहानी का स्वरूप यद्यपि इन प्राचीन कथारूपों से पर्यात भिन्नता रखता है, परन्तु इसके मूल उपकरणों में बहुत समानता है। मध्य युग की कहानियों में अपनी अलग पहचान थी। ‘अलिफ लैला’, ‘बेताल पचीसी’, आदि कहानियां अपने सामाजिक परिवेश और तिलस्म की दुनियां पर आधारित थी। राजेन्द्र यादव लिखते है - ‘स्त्रियों की चरित्रहीनता और दरबारी भ्रष्टाचारी से भरी कहानियां ही मध्य युग में लिखी गई थी । चाहे बेताल -विक्रमाद्वितीय के विलक्षण प्रश्नों के निमित्त पच्चीस बार एक कहानी को बाध्य करे या बत्तीस पुतलियां राजा भोज की बत्तीस बार नींद हराम करे, या तोता - मैना रोज पुरूष-नारी की सच्चरित्रता, शील की तुलना को प्रतिस्पर्धा का विषय बनाये। चाहे मल्लिका शहरजाद हर रात शहरजाद को नयी दास्तान सुनाकर अपनी मौत हर रात टालती रही है। या हातिम - गुतीरशायी प्रेमिका के हर सवाल के लिए दुनिया भर की खाक छानता फिरे। कहानी एक ही और वहीं उस ऐश्वर्यशाली समाज की रीढ़ है।’ अतः कहानी प्रत्येक युग की एक प्रमुख विधा रही है। 
कोई भाव या अहसास जब मन की धरा से उपज कर कागज पर कलम के माध्यम से शब्दों के रूप  विशेष ‘कोमलता या उग्रता से अवतरित होते है तो इसे कहानी कहते है। यूं तो कहानी की कई खूबसूरत परिभाषाएं हमें पढ़ने को मिलती है लेकिन सरल शब्दो में जो मन से निकलकर सीधे मन को स्पर्श करें वही असल में कहानी है। इन अर्थों में “खो गया गांव” डॉ. श्रीमती अपर्णा शर्मा का कहानी संग्रह स्वागत योग्य है। “खो गया गांव” कहानी संग्रह में पन्द्रह कहानियां हैं, जिनमें लेखिका ने मानव जीवन में घटित होने वाली घटनाओं को कथा सूत्र में पिरोया है। 
‘दीदी की शादी’ जैसा कि शीर्षक से ही प्रतीत हो रहा है कि कहानी मीनाक्षी के विवाह को लेकर कथानक है। लेखिका ने कहानी में विवाह के वातावरण को जीवंत रूप से प्रस्तुत किया है। जैसे “नीलू बैठ गई कुछ ही देर में उसका शादी का जोड़ा, गहने और साज - सँवार का सामान इकट्टा कर दिया गया। नीलू नहाई और उसे सजाने का काम शुरू हो गया। नीलू और घर के सभी लोग बरात की आगवानी की तैयारी कर रहे थे।” (पृ. 27)  कहानी में बेटी के विवाह को लेकर जो माता - पिता व दादी को चिंताए एवं आशंकाएं थी वह  आज भी भारतीय समाज की संस्कृति का अभिन्न अंग है। भारतीय समाज में बेटी के जन्म से विवाह और  विदाई तक जो सपने संजोय जाते है उन्हें कहानी में लेखिका ने संजीव रूप से चित्रित किया है। जैसे “जब विदाई का समय आ गया और नीलू पूरी तरह तैयार हो गई तो दीदी ने आकर उसके गले में हार पहना दिया और हाथों में चूडि़याँ। यह वही हार और वे ही चूडि़याँ थी जो मीनाक्षी की मात्र पन्द्रह वर्ष की अवस्था में दादी ने उसके लिए सहेजकर रखी थीं। दादी, पिताजी और माँ ने कितने ख़्वाब देखे थे जिनमें मीनाक्षी दुल्हन बनी इन चीजों को पहने रहती थी। उनके ख़्वाब पूरे न हो सके। पर आज मीनाक्षी का ख़्वाब पूरा हो गया था। वह अपनी प्यारी बहन को अपने हाथों विदा कर रही थी। मीनाक्षी ने डिब्बे से घने घुंघरूओं और चौड़े पट्टे वाली पायल निकालकर नीलू हो पहना दीं। दीदी जैसे ही पायल पहनाकर उठी, नील उसके गले लगकर फूट - फूट कर रो पड़ी।” (पृ. 28) 
‘पगली की वापसी’ कहानी में लेखिका ने नारी के जीवन का मार्मिक वर्णन किया है। कहानी में विमला के  विवाह के बाद उसके जीवन में घटित घटनाओं को दर्शाया गया है। “जहां से दुलारी के दुःखों का अंत हुआ वहीं से विमला के दायित्वों का प्रारम्भ।” (पृ. 29) कहानी की कथावस्तु में विमला के दुखों को और उसके पागल होने की परिस्थतियों को बताया गया है। विमला को पति के द्वारा पागल खाने में छोड़ आने पर मजबूर होकर पागल खाने को ही अपना घर बना लेती है किन्तु एक दिन उसका मझला बेटा पागल खाने आता है और विमला को अपने साथ अपने घर ले जाता है। इस तरह से ‘पगली की वापसी’ कहानी में विमला की अपने घर वापसी होती है। आज हमारे समाज में इस तरह की बहुत सारी विमला है जो पागल खाने से अपने घर की वापसी के लिए सपना संजाये हुये ही मृत्यु को प्राप्त हो जाती है। 
‘मेरी बेटी’ कहानी में एक माँ की मनः स्थिति का बखूबी से चित्रण किया गया है। जन्म के पश्चात् जब एक लडकी बड़ी होती है तो उसे दादी, नानी और अन्य रिश्तेदारों के द्वारा यह समझाया जाता है कि बेटियां पराया धन होती हैं और ससुराल ही उनका असली घर होता है। कुसुम की बेटी रीना का जब विवाह हो जाता है तो कुसुम बहुत दुखी होती है। “कुसुम को लगा कि इस समय उसकी बेटी अलग ही नहीं हुई वरन् उसके दिल से टूटकर कुछ अलग हो रहा है। वह बाहर तक बेटी को विदा करने आई।” (पृ. 35) रीना ने बड़ों द्वारा दी गई सीख का अपनाकर अपने ससुराल को पूरी तरह से अपना समझ लिया तो कुसुम को लगा की उसने जिस बेटी को जन्म दिया और पाला-पोसा वह इतनी जल्दी कैसे पराई हो गई  रीना से बातों ही बातों में कुसुम व्यंग्य के द्वारा अपनी बेटी से पूंछती है? “हाँ, तो क्या आज्ञा है आपकी मम्मीजी की ? कब तक की अनुमति है तुम्हें यहां रहने की ?” (पृ. 40)  पर जब आज स्वयं कुसुम के घर में बहू आई तो कुसुम भी एक पारम्परिक सास बन गई। “उसे यह सोचकर आश्चर्य हो रहा था कि आखिर वह इतनी कठोर हो कैसे गई ? और कुछ ही देर की तो बात थी यदि बहू चली जाती तो क्या फर्क पड़ता उसने तुरंत भूल सुधार ली और रोहण को बहू को कुछ देर उसकी मां से मिला लाने का आदेश दे दिया।” (पृ. 42)
‘झाडू’ कहानी में झाडू के महत्व को दर्शाया गया है कि “जिस घर में भोर में घर की बहू झाड़ू न लगाये, वहां
बरकत नहीं होती है। घर की बहू साक्षात् लक्ष्मी होती  है।यदि वही लक्ष्मी का स्वागत न करे तो लक्ष्मी रूठ जाती है।” (पृ. 43) मालती ने यह बात अपनी दादी से सुनी व देखी थी। आज उसकी उम्र 70 वर्ष हो जाने पर भी वह सुबह - सुबह उठकर जल्दी झाड़ू लगाने की परम्परा का निर्वाहन कर रही। चाहे उसका शरीर साथ दे या न दे मालती अपने पूर्वजों की परम्परा को छोड़ नही पाती है और न ही छोड़ना चाहती है।
‘हरी मिर्च’ कहानी में बहू के व्यवहार को लेकर कथा वस्तु प्रस्तुत की गई है। शर्मा जी की बहू रीता ने अपने व्यवहार से सभी का मन जीत लिया। सब कुछ ठीक प्रकार से चल रहा था कि नियति ने रीता को मृत्यु की गोद में सुला लिया। शर्मा जी ने अपने बेटे का पुनः विवाह किया और नई बहू से सबको जो आशाएं थीं वे पूरी न हो सकी । नई बहू के द्वारा अपने पति से कहे हुए  शब्द “आप क्या समझते है मैं सुबह से नौकरानी की तरह जुट जाया करूं ? दिन भर उसी में लगी रहूं ? नहीं मैं ऐसा नहीं कर सकती।” (पृ. 51) शर्मा जी के कानों में नई बहू के द्वारा कहें गये वे शब्द गूंज रहे थे और वे सोचते है कि “क्या मात्र दस बरस का अन्तर मानव मूल्यों को इतना बदल सकता है? उन्हें एक दम उल्टा कर सकता है ?” (पृ. 51) शर्मा जी को रीता के चेहरे के साथ अपनी थाली में रखी हरी मिर्च का ध्यान आया। उन्हें आभास हो गया कि रीता द्वारा थाली में परोसी जाने वाली मिर्च तीखी से कड़वी हो गई है। 


‘खाने पर नजर’ कहानी में ट्रेन में होने वाली लूट की घटना को रोचक ढंग से प्रस्तुत किया गया  है कि हम सब कुछ जानते हुए भी और सतर्क रहने के बावजूद भी चूक कर बैठते हैं  और लूट का शिकार हो जाते हैं । कहानी में लेखिका ने एक महिला और उसके बच्चे जो यात्रियों का सामान लूटा करते थे उनके बारे में बताया है कि वह महिला और बच्चे देखने में सभ्य और अच्छे आचरण वाले थे। अपने व्यवहार से बच्चों और उनकी माँ ने लेखिका का दिल जीत लिया पर जैसे ही मौका मिला वे लेखिका का सामान लेकर चम्पत हो गए। यह कहानी हमें यह सोचने को मजबूर करती है, कि हम कैसे किसी पर विश्वास करें? क्योंकि लोग पहले अपना बनाते है उसके बाद ही धोखा देते है। बातों ही बातों में उन्होंने लेखिका को विश्वास में लेकर किस प्रकार से अपनी हाथ की सफाई के द्वारा लेखिका और वृद्ध स्त्री के सामान को लेकर भाग गये और लेखिका और वृद्ध स्त्री नि:सहाय होकर देखने और चिल्लाने के अलावा और कुछ न कर सके।
  ‘चक्कर एडवांस का’ कहानी में घरेलू नौकरानी गुड्डो की कहानी है जो कि अपनी मेम साहब से हर महीने  कुछ न कुछ बहाना बनाकर एडवांस लेती रहती है और एक दिन नौकरानी गुड्डो का पति अस्पताल में भर्ती होता है। गुड्डो द्वारा हर महीने एडवांस मांगने के करण जब उसे पति के इलाज के लिए पैसों की आवश्यकता होती है तब उसे कोई एडंवास नहीं देता। उसके पति की ईलाज और पैसों के  अभाव में मृत्यु हो जाती है। ‘चक्कर एडवांस का ‘कहानी के अन्त में  मेम साहब को गुड्डो बताती है कि वह अपने पति के सभी शौक पूरा करने के लिए ही मेम साहब से बहाने बना-बनाकर एडवांस मांगती थी  और वहीं आज उसे अकेला छोड़ कर इस दुनिया से चला गया गुड्डो के द्वारा कहे गये ये शब्द उसके प्रति सहानुभूति उत्पन्न करते है।इस कहानी में गरीब नौकरानी की आर्थिक दशा का करूणापूर्णक मार्मिक वर्णन किया गया है। और  यह सच भी है कि आजादी के इतने वर्षो के पश्चात् भी भारत में गरीबी एक दानव की तरह फैली हुई है। आर्थिक विषमता के कारण ही अधिकांश लोग नरकीय जीवन जीने को मजबूर है। 
“सच यह मुन्नन की चोटी ही थी जो उसे सामान्य रंग - रूप की होते हुए भी हमारे बीच आकर्षण का केन्द्र बना देती थी।”(पृ. 67) ‘लम्बी चोटी’ कहानी में लेखिका ने लम्बी चोटी के आकर्षण और विशेषताओं को व्यक्त किया है। नारी के सोलह श्रृंगारों में से प्रमुख श्रृंगार उसके केश होते है। नारी के इस श्रृंगार को हिन्दी कवियों ने काले बादलों और काली घटाओं की उपमा दी है तो कही पर लम्बी चोटी को नागिन सी बल खाती हुई सांप की उपमा दी है और हिन्दी फिल्मी गानों में स्त्री के केष पर अनेकों उपमाएं दी गई है। हिन्दी साहित्य के इतिहास में भी आदिकाल से लेकर आधुनिक काल की कविताओं में नारी के श्रृंगार और केशों के बिना कविता अधूरी है। इस कहानी में लेखिका ने यह बताने की कोशिश की है कि लम्बे बालों वाली स्त्री सहज ही आर्कषण  का केन्द्र होती है। लम्बे केश के बिना नारी के श्रृगांर और सुन्दरता का वर्णन अधूरा रह जाता  है। 
‘भगत’ कहानी में भगत नामक अनाथ बालक की करूण कहानी है। पांच वर्ष की अवस्था में ही जब भगत का पूरा परिवार महामारी में खत्म हो गया था तब वह लोगों के घर पर पशुओं का काम कर के अपना जीवन व्यतीत करता था । “वह मरा तो पूरे गांव में चूल्हा न जला और पूरे ठाठ से उसका जनाजा निकला। भगत के सोलह संस्कारों में बस अत्येष्टि ही हुआ वह भी मंत्रोचार के साथ। भगत सबक था। भगत के सब थे।” (पृ. 72)
‘टक्कर’ कहानी में लेखिका ने वृद्ध पिता की व्यथा को प्रस्तुत किया है। समाज में टूटते हुए परिवारिक  मूल्यों के कारण अपने ही परिवार में पिता जो सब का पालन पोषण करता है और अपनी प्रत्येक जिम्मेदारी को पूरा करता है अपने जीवन के संध्या काल में जब उसे किसी सहारे की आवश्यकता होती है तब  उसके पुत्र जिसकी “अच्छी नौकरी लग जाने पर उन्हें देहाती वातावरण से घृणा होने लगी थी।” (पृ. 74) अपने पिता की उपेक्षा करनी शुरू  कर देते हैं बिना यह सोचे- समझे की जिस वृक्ष की छांव में उसे फलने - फूलने का अवसर प्राप्त हुआ। आज जब वह पौधा बड़ा हो गया माली को उस पौधे रूपी वृक्ष की छावं की आवश्यकता है उसका पुत्र तब उसे असहाय अवस्था में छोड़ देता  है। 
‘आखिर कब तक’ कहानी में नारी के शारीरिक शोषण की कथावस्तु है जिसे लेखिका ने बड़े ही रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है।  आधुनिक  समाज के बदलते परिवेश में आज भी छोटी लड़कियों और स्त्रियों का पुरूष वर्ग शारीरिक शोषण करने से चूकते नहीं हैं। छः वर्ष की छोटी बच्ची सरिता जो छेड़े जाने का अर्थ समझ भी नहीं सकती उसे आज जब वह बड़ी होने के पश्चात ताई का जोरदार तमाचे का अर्थ स्पष्ट हुआ । “उस समय सरिता को छेडे़ जाने का अर्थ मालूम न था पर आज स्पष्ट है। हाँ वास्तव में वह छेड़ा जाना ही था। क्योंकि वे दोनों बारी-बारी से उसे अपने पास बुलाते और बिठाते हुए उसकी छाती और जाँघों की दबा देते थे। उस समय सरिता को मात्र गुदगदी होती थी पर कई बरस बाद वह जान पाई कि यह छेड़ने  का ही हिस्सा था।” (पृ. 79) लेखिका इस कहानी के माध्यम से यह प्रश्न उठाती है कि आखिर कब तक इस सभ्य समाज में पुरूष वर्ग अपने सभ्य बनने का ढोंग करता रहेगा और कब वह अपनी वासना से भरी घिनौनी मानसिकता का त्याग करेगा ? कब तक लड़कियों का शोषण होगा, आखिर कब तक ? 
‘समर्थ’ में ‘सुनीता’ की कहानी है कि जब वह छोटी थी तो माँ से स्कूटी की जिद् किया करती थी । माँ के द्वारा जब उसकी जिद् पूरी नहीं हो पाई  तब वह सोचती थी  कि जब मैं बड़ी होऊंगी तब मैं बहुत सारे पैसे कमाऊंगी और उसे अपनी मर्जी से खर्च करूंगी पर जब सुनीता स्वयं कमाने लगती है परिस्थितियां इस प्रकार की हो जाती है कि “इस समय सुनीता स्वयं को उस भिखारिन से गरीब और पैसा खर्च का निर्णय न ले पाने वाली अपनी माँ से अधिक मजबूर महसूस कर रही थी।” (पृ. 85) ‘समर्थ’ कहानी के माध्यम से  लेखिका यह संदेश देना चाहती है कि हम दूसरों की परिस्थितियों को जब तक समझ नहीं पाते जब तक हम स्वयं जीवन में उन परिस्थितियो से गुजर कर अनुभव प्राप्त नहीं कर लेते हैं । 
‘बड़ी बहन’ माला के पति भोलू और माला की बहन शीला के अवैध सम्बन्ध की कहानी है जिसके कारण माला और भोलू के बीच में पति -पत्नी का रिश्ता सहज रूप से सामान्य नहीं हो पा रहा था। भोलू माला से अलग- अलग और कटा हुआ रहता था। उनका दाम्पत्य जीवन मधुर नही था। माला ने अपने पति से सामान्य रिश्ते बनाने के लिए हर सम्भव कोशिश की अन्त में उसे सफलता तब मिली जब वह और भोलू काम के लिए दूसरी जगह पलायन कर गये। कहानी में लेखिका जीजा-साली के अवैध सम्बन्धों को उजागर करते हुए माला के दुखों के कारण को लेखिका ने चित्रात्मकता के साथ संजीव रूप से प्रस्तुत किया है। कहानी के अन्त में माला के जीवन को सुखद बनाते हुए लेखिका कि ये पंक्तियां “वह भयावह छाया धीरे धीरे धूमिल हो रही थी। माला का नरक उससे दूर हो रहा था और उसका भोलू उसके करीब आ रहा था। माला जीवन भर तनेजा बीवीजी का एहसान नहीं भूलेगी। तन मन से उनकी सेवा करेगी। माला ने आहिस्ता से भोलू का हाथ थाम लिया और धीरे से कहा - “चलो हम नये सिरे से जिंदगी शुरू करें। उसका असली गौना तो आज ही हुआ।” (पृ. 93) पाठकों के मर्म को स्पर्श करता है। 
‘खो गया गांव’ डॉ. अपर्णा शर्मा के कहानी संग्रह की सबसे बड़ी कहानी है। यह गांव से शहर को पलायन और गांव के बदलते परिवेश  की कहानी है। जब प्रतापसिंह 40 वर्षों बाद वापस अपने गांव जाता है तो उसे बहुत से परिवर्तन देखने को मिलते है। उसे महसूस होता है कि जो गांव उसके बचपन की यादों में था वह गांव आज खो गया है। ‘खो गया गांव’ की कथावस्तु बड़ी होने के कारण प्रारम्भ में रोचक नहीं लगती क्योंकि कहानी के आरम्भ में सम्पूर्ण रिश्तेदारों का क्रमानुसार वर्णन किया गया। जो पाठकों  थोड़ा नीरस लगता है और कहानी बोझिल लगने लगती है परन्तु कहानी के मध्य में कहानी की विषय वस्तु रोचक ढ़ंग से पाठकों को बाधने में सक्षम रही है। 
लेखिका ने इस कहानी संग्रह के द्वारा सभी आयु वर्ग के पाठकों का मनोरंजन किया है और साथ-साथ पाठक वर्ग के समक्ष यह प्रश्न उठाया है  कि आदिकाल से लेकर आधुनिक काल में भी नारी का कब तक शोषण किया जायेगा और उसे कब तक मात्र उपभोग की वस्तु समझा जायेगा ? वर्तमान समय में भी स्त्रियों की दशा आदिकाल की भांति है। समाज में पुत्र के मोह में जन्म से पहले ही पुत्री को गर्भ में ही मार दिया जाता है। यदि वह जीवत भी रहती है तो अत्याचारों का सिलसिला क्रमानुसार चल पड़ता है जो उसकी मृत्यु पर ही समाप्त होता है।  इसके अतिरिक्त एक और ज्वलन्त प्रश्न भी लेखिका ने हमारे सम्मुख रखने की चेष्टा की है की बदलते परिवेश में, आधुनिकता की दौड़ में हम अपने माता-पिता को उपेक्षित करके आगे बढ़ रहे है। ऐसी आधुनिकता की दौड़ में आगे बढ़ने से फायदा क्या जब हम अपने जीवनदाताओं के प्रति ही अपना कर्तव्यों को पूरा नहीं कर रहे है तो हमें अपने बच्चों से भी किसी प्रकार की कोई आशा भी नहीं रखनी चाहिए।

सन्दर्भ: - 
डॉ. राजेन्द्र यादव, कहानी: स्वरूप और संवेदना, पृ. 6.
रामचन्द्र शुक्ल, हिन्दी साहित्य का इतिहास  
श्रीमती अपर्णा शर्मा, खो गया गांव 
                            (आशा मीणा)                    
 



                                                     

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