आज लोग सामाजिकता पर कम और सामाजिक माध्यमों (SOCIAL MEDIA)पर ज्यादा ध्यान देते हैं, प्रतीत होता है कि लोग समाज से जुडने के रास्ते नही अपितु समाज से दूर होने के रास्ते को ढूँढ रहे हैं।Modernity
आधुनिकता
आज सुबह मेरे व्हाटसप पर एक चलचित्र आया जिस फिल्म मे दिखाया गया था कि किस तरह सड़क पर जा रहे एक व्यक्ति को दो लोग आकर मारने लगते हैं, और वहाँ पर पचास से ज्यादा लोग खडे होकर तमाशा देख रहे है, और कई लोग उस घटना को मोबाइल मे फिल्मा रहे हैं ।
आज की वास्तविकता है ये ?
आज लोग सामाजिकता पर कम और सामाजिक माध्यमों (SOCIAL MEDIA)पर ज्यादा ध्यान देते हैं, प्रतीत होता है कि लोग समाज से जुडने के रास्ते नही अपितु समाज से दूर होने के रास्ते को ढूँढ रहे हैं।
आज हमारे सामने जब कोई दिल दहला देने वाली तस्वीर या चलचित्र आती है, तो हम उस पर विचार(COMMENT) जरूर व्यक्त करते हैं, पर जिस व्यक्ति द्वारा वह तस्वीर लायी और सामाजिक माध्यमों पर प्रस्तुत की गयी होती है, तो हम उससे यह नही पूछते कि जब यह घटना घटित हुई उस क्षण आप वहाँ थे, तो आपने इसको रोका क्यों नही?
हम यह प्रश्न इसलिये नही पूछते, क्योंकि हम भी इसी तरह तस्वीरे ले रहे होते हैं, अपने देश के बुराइओं का एक और सबूत बना रहे होते हैं। जब हम यैसी कोई तस्बीर देखते हैं तो हम कहते हैं,"सच मे बहुत बुरा हुआ, यैसा करने वाले को जान से मार देना चाहिये" इत्यादि इत्यादि।
हममे से अगर कोई इस तरह के सार्वजनिक झगडों में बोलने लगे तो हम उसे पागल और गँवार समझते हैं, और फिर वो बेचारा बिना गलती का पिट जाता है। और जो कैमरा अथवा मोबाइल निकाल के उस झगडे को कैद कर रहा होता है, उसे शहरी सभ्य सज्जन मनुष्य का दर्जा दिया जाता है।
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शिवराम तिवारी "मोहित" |
खैर मै भी ग्रामीण हूँ, पर अब शहर मे आ चुका हूँ, कई बार सार्वजनिक झगडों को रोकते रोकते मेरे भी पिटने की नौबत आ गई थी, पर अब शहरी सज्जन हो गया हूँ, अच्छा सा मोबाइल लिया है ताकि ऐसी घटनायें फिल्मा सकूँ !
चूँकि घटनास्थल पर कुछ बोल नही सकता, क्योकि हिम्मत नही करती, हिम्मत होती भी है तो गँवार कहलाने का डर सताने लगता है । इसलिये मै भी अपना मोबाइल निकालता हूँ , और घटना को फिल्माना शुरू कर देता हूँ ।
परंतु मनुष्य होने के कारण मनुष्यता और संवेदना तो होती ही है, अतः मै उस तस्वीर या चलचित्र को सामाजिक माध्यमों पर प्रेसित करके अपने भडास को, हिम्मत को निकालता हूँ , इससे मुझे शूकून मिलता है, और मेरे जैसे कुछ और लोग जो मानवतावादी होते हैँ , वह इस पर विचारों (comments) को प्रकट करते हुए इसकी खुल कर निंदा करते हैँ।
ऐसा लगता है जैसे वो भी अपने भडास को निकाल रहे होते हैं । मुझे भी काफी शूकून मिलता है और मै ऐसे घटनाओं को हिंदुस्तान के सडको पर गलियारो मे, मोहल्ले में ढूढते रहता हूँ , और उसे एक जागरूक नागरिक की तरह फिल्माने के लिए तैयार रहता हूँ ।
क्या यह सच नही कि, आधुनिकता में मानवता का लोप हो रहा है ?
यह रचना शिवराम तिवारी "मोहित" जी द्वारा लिखी गयी है . आप स्वसंतुष्टि के लिए रचना करते हैं . संपर्क सूत्र - email : shivramtiwariji@gmail.com
it is the reality,
जवाब देंहटाएंyou are right.
बहुत ही बढिया प्रस्तुति है।
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