पत्रकारिता - किस ओर

SHARE:

समाचार पत्रों में होड़ लगी होती थी कि कौन सबसे पहले जनता तक खबर पहुँचाएगा और किसकी खबर कितनी सही होती थी. इसीलिए सारे खबरनवीस अपने - अपने खबरचियों को भेजकर सही खबर जुटाने का प्रयास करते थे.

पत्रकारिता - किस ओर
आज की पत्रकारिता पिछले पचास सालों में न जाने कितनी बदल गई है कि आपस में तुलना करना ही मुश्किल
सा हो गया है.उस जमाने में पत्रकारिता का पहला काम था देश, विदेश व प्रदेश की खबरों को निष्पक्ष भाव से आम जनता तक पहुँचाना. उनका किसी राजनैतिक दल से या किसी औद्योगिक अनुष्ठान से कोई नाता नहीं होता था. हो सकता है कि किसी औद्योगिक संस्थान के पास उस समाचार पत्र का मालिकाना हक रहा होगा, किंतु इसका कोई भी असर खबरों के खुलासे पर नहीं होता था.
समाचार पत्रों में होड़ लगी होती थी कि कौन सबसे पहले जनता तक खबर पहुँचाएगा और किसकी खबर कितनी सही होती थी. इसीलिए सारे खबरनवीस अपने - अपने खबरचियों को भेजकर सही खबर जुटाने का प्रयास करते थे. भाषा इतनी सुंदर होती थी कि पढ़ने का मन करता था. बहुतों के लिए तो यह भाषा सीखने का माध्यम भी होता था. मैंने अखबार में फिल्मी कलाकारों के नाम पढ़-पढ़ कर बंगाली सीखी है. गुजरात में स्थानाँतरण पर ऐसे ही गुजराती भी सीखी. किंतु क्या अब वैसा संभव है?
भाषा की शुद्दता की तो बात ही गजब थी. दि हिंदू, टाईम्स ऑफ इंडिया, स्टेट्समेन, हिदुस्तान टाईम्स यहाँ तक कि हिंदी अखबार नव भारत, नवभारत टाईम्स, महाकौशल, से भी बच्चे भाषा सीखते थे. हर उम्र के लिए अखबार में कुछ न कुछ होता था. बच्चे बूढ़े स्त्रियाँ सभी अखबार पढ़ने को आतुर रहते थे. कई तरह की मनोरंजक कथाएं, बाल कविताएं,  पकाइए-खाईए और खिलाइए जैसे लेख, संपादकीय में उत्कृष्ट भाषा - अखबार के मुख्य आकर्षण होते थे. खबर तो अखबार का मुख्य मुद्दा ही था.  
घर - घर में साप्ताहिक, पाक्षिक और मासिक पत्रिकाएँ आया करती थी. जिससे कि घरवाले फुरसत की घड़ियों में पढ़ सकें और सीखें. खास कर गर्मियों में बच्चों को धूप से दूर रखने का यह एक सही उपाय था. बच्चे गर्मी से बचते भी थे और साथ ही साथ सीखते भी थे. ज्ञान का ज्ञान और साथ में भाषा भी. अब बच्चों के पास भी कंप्यूटर गेम खेलने व सामाजिक पोर्टलों पर सर्फिंग करने के अलावा समय ही कहाँ है. वे जानते ही नहीं कि मैदान में कैसा खेला जाता है. वे देखना जानते हैं – वाडियो क्लिप पर.
जैसे पहले खबर हुआ करती थी  “ट्रक के टक्कर से एक की मौत”. आज वही खबर “अनियंत्रित ट्रक ने दलित को चपेट में लेकर कुचला” लिखी जाएगी. यह है खास परिवर्तन. सामाजिक पहलू पर जोर देकर खबर को भड़काऊ बनाया जाएगा. जैसे बूढे को पीटा, स्त्री पर ताकत दिखाया, जाति की खबर देकर अत्याचार किया – सा लिका जाएगा. पहले खबर होती थी कि भारत ने पाकिस्तान को 8 विकेट से करारी शिकस्त दी. अब  लिखा जाता है “भारतीय वीरों ने पाकिस्तान को कुचल डाला या रौंदा.”
भाषा में विशेष तौर पर भड़काऊ अंदाज आ गया है. खबर होगी “ट्रेन पटरी से उतरी और झोपड़ी में घुसी”. यदि पटरी के बगल में झोपड़ी बना ली गई हो, तो की क्या करे. कोई सरकार की तो सुनता नहीं है और वैसे भी जबरन जगह घेरने की परंपरा हमारे देश में बहुत ही प्रचलित है. कुछ सालों बाद नेता लोगों की सहायता से इन्हें नियमित करा दिया जाता है.
आज पत्रकारिता में भाषा के स्तर की बात करना ही बेमानी है. इससे भाषा सीखी तो नहीं जा सकती, हाँ सीखी
एम.आर.अयंगर
सिखाई भाषा को यह खराब जरूर कर देगी. हर जगह भड़काऊ वक्तव्य मिलेंगे. वैसे हमारे नेता भी भड़काऊ वक्तव्य देने लगे हैं. जिनके मुँह जो आए जिसे जो भाए कहता रहता है. दूसरों पर वह किस प्रकार का असर करेगा, यह सोचना उनके लिए जरूरी नहीं है. वैसे ही पत्रकारिता में प्रयुक्त भाषा का जनमानस पर क्या प्रभाव होगा, इसकी चिंता करने की किसी को जरूरत महसूस ही नहीं होती.  
हमारी टीम एक मैच जीत लेती है तो भारतीय खिलाड़ियों के बारे सातवें आसमान से बातें करते हैं. तारीफों के ऐसे पुल बाँधते हैं कि पढ़ने वाले को भी शर्म आ जाए. लेकिन यदि वो अगला मैच हार जाती है तो ब्रह्मा-विष्णु-महेश समझे जाने वाले, वे ही हफ्ते भर में नकारा हो जाते हैं. उनके बारे में भद्दी-भद्दी टिप्पणियाँ शुरु हो जाती हैं. या तो हम सर पर बिठाएंगे या कदमों तले रौंद देंगे. गले लगाने वाली परंपरा तो कभी की खत्म कर दी गई है.
हाल ही के एक दास्ताँ में एक कलाकार के वक्तव्य पर पत्रकारिता ने इतना बवाल मचाया कि ऐसा लगा - मानो देश के टुकड़े ही कर दिए गए. उसने अपनी राय दी और कुछ ने उसका विरोध किया. उन सब वक्तव्यों पर नमक मिर्च छिड़क कर पत्रकारों ने उसे अपने समाचार पत्रों की बिक्री का जरिया बना डाला. चेनलों का टीआर बढ़ाने का जरिया बना डाला. सही है कि पत्रकारिता में भी अब व्यापार आ गया है, लेकिन इस हद तक कि मानवीयता को भूल जाया जाए? 
कल जब परदेश में देश के प्रधानमंत्री कह आए कि कल तक भारतीयों को भारतभूमि पर जन्म लेने की बात पर शर्म आती थी – तब तो समाचार पत्र ऐसा बवाल नहीं मचा पाए... शायद इसलिए कि प्रधानमंत्री के पास बहुत अधिकार होते हैं और वे चाहें तो मिनटों में क्या चुटकियों में समाचार पत्र का खात्मा तक कर सकते हैं. और हाँ आजकल हर समाचार पत्र किसी न किसी औद्योगिक घराने से ताल्लुक रखता है और इसी कारण उसे पत्रकारिता में भी घराने के व्यापारिक लाभ – हानियों का भी ध्यान रखना पड़ता है. एक ही खबर को अलग - अलग समाचार पत्र और टी वी चेनल अलग - अलग ढंग से दिखाने का भी यही कारण है.
एक जमाना था जब पत्रकारिता को समाज का आईना कहा जाता था. उसी दौर में सिनेमा को भी समाज का दर्पण कहते थे. लेकिन अब न तो पत्रकारिता वैसी रह गई है और न ही सिनेमा. दोनों पूरी तरह व्यापारिक संगठन हो गए हैं. पैसा कमाना ही एक मात्र ध्येय रह गया है दोनों का.
ये सामाजिक पोर्टल सबके लिए उपलब्ध हैं. जिसे जो चाहे लिख सकता है. समाज के सदस्य ही उस पर अपनी टिप्पणियाँ करते हैं और आपस में बाँटते रहते हैं. जब इतने से नहीं होता तो समाचार पत्र इन सामाजिक पोर्टलों के खींचा-तानी को अखबार में छापते हैं ताकि जन मानस में नमक मिर्च लगाकर अपना अखबार बेचा जा सके. शायद उनके पास कोई विशेष समाचार नहीं होता इसीलिए वे नाहक खबरों से पत्र को भर लते हैं. जिनके पास सामाजिक पोर्टल की पहुँच नहीं भी हैं उनको भी इस कीचड़ में घसीटा जाता है, इन खबरनवीसों द्वारा. खास कर जिन वक्तव्यों में भड़काऊ मसाला है, उसमें में तो इनकी चाँदी - चाँदी हो जाती है. 
आज आप एक प्रतिष्ठित अखबार उठाइए. मुख्य खबरों पर नजर डालने में आपको दो मिनट से ज्यादा समय नहीं लगेगा. अब आएँ आपके पसंदीदा खबरों पर - उनको पढ़कर अखबार परे करने में आपको शायद पाँच से दस मिनट लग जाएंगे. रही बात संपादकीय की तो वह खाली वक्त में ही पढ़ा जा सकता है. जब भी पढ़ना शुरु करेंगे - या तो आप उसे दो लाईन पढ़कर छोड़ दोगे या फिर पाँच मिनट में पढ़लोगे. इस तरह एक प्रतिष्ठित अखबार ज्यादा से ज्यादा आपका एक घंटा साथ दे सकता है. यही अखबार पिछले दशकों में पूरे दिन पढ़े जाते थे. सुबह खास खबरें देखी और जरूरी एक दो खबर पूरी पढ़ ली. पंद्रह मिनट लगाए और दफ्तर की तैयारी में जुट गए. शाम लौटकर थकान पूरी की, कोई बाजार का काम हो तो किया या फिर किसी के घर बैठने जाना है तो हो आए और फिर घुस गए अखबार में. अब अखबार पूरी तरह पढ़ा जाता था. रात होते – होते समाचार तो पूरे पढ़ लिए जाते थे, किंतु संपादकीय रह जाता था, जो अक्सर छुट्टी के दिनों मे या रविवार को पढ़ा जाता था. रविवार को सारे सप्ताह के अखबारों में छपे नए शब्दों के अर्थ शब्दकोश से खोजकर रख लिए जाते थे. इसी तरह भाषा ज्ञान में उन्नति होती थी.




यह रचना माड़भूषि रंगराज अयंगर जी द्वारा लिखी गयी है . आप स्वतंत्र रूप से लेखन कार्य में रत है . आप की विभिन्न रचनाओं का प्रकाशन पत्र -पत्रिकाओं में होता रहता है . संपर्क सूत्र - एम.आर. अयंगर. 8462021340
वेंकटापुरम, सिकंदराबाद, तेलंगाना -500015  Laxmirangam@gmail.com

COMMENTS

Leave a Reply: 5
  1. वो समय और था महानुभाव सच्चाई का बोलबाला था अब तो ऐसा समय आया हैं कि ऊपरी चमकदार ही अच्छा व सच्चा माना जाता हैं.समय को दोष हैं.

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आलम सिंह जी,
      आपने सही फरमाया. वह आलम ही और था. दोष समय को देना कितना उचित है यही सोच रहा हूँ...बदलाव में हम भी तो शामिल है.
      सादरआभआर,
      अयंगर.

      हटाएं
  2. आत्मावलोकन का आव्हान !!!

    जवाब देंहटाएं
  3. भोलेश्वर जी,
    बहुत सुंदर टिप्पणी की है आपने,
    आभआर,
    सादर,
    अयंगर.

    जवाब देंहटाएं
  4. भोलेश्वर जी,
    बहुत सुंदर टिप्पणी की है आपने,
    आभआर,
    सादर,
    अयंगर.

    जवाब देंहटाएं
आपकी मूल्यवान टिप्पणियाँ हमें उत्साह और सबल प्रदान करती हैं, आपके विचारों और मार्गदर्शन का सदैव स्वागत है !
टिप्पणी के सामान्य नियम -
१. अपनी टिप्पणी में सभ्य भाषा का प्रयोग करें .
२. किसी की भावनाओं को आहत करने वाली टिप्पणी न करें .
३. अपनी वास्तविक राय प्रकट करें .

You may also like this -

Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy बिषय - तालिका