प्रसाद नहीं मिला

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पिछले काफी दिनों से ‘जूठन’ पढ़ रहा था . कल अंतिम पृष्ठ का अंतिम शब्द भी पढ़ डाला . समाज में दलितों का तिरस्कार, शोषण, दमन, बाबा साहेब के प्रति सवर्णों की घृणा, विकसित और उपेक्षित अवर्णों के बीच बढ़ती खाई, दलित व्यक्तियों द्वारा स्वयं की पहचान छिपाने की चेष्टा करना इत्यादि कई घटनाओं के सजीव चित्रण को उस वातावरण में पहुँच कर जीने की कोशिश कर रहा था . हालाँकि ये कहना भी उनके मुँह पर एक जोरदार तमाचा ही होगा कि मैं दलितों के प्रति सहानुभूति प्रकट कर रहा हूँ . क्योंकि मेरी मान्यता है कि ये सहानुभूति नहीं स्वानुभूति का विषय है .

प्रसाद नहीं मिला

पिछले काफी दिनों से ‘जूठन’ पढ़ रहा था . कल अंतिम पृष्ठ का अंतिम शब्द भी पढ़ डाला . समाज में दलितों का तिरस्कार, शोषण, दमन, बाबा साहेब के प्रति सवर्णों की घृणा, विकसित और उपेक्षित अवर्णों के बीच बढ़ती खाई, दलित व्यक्तियों द्वारा स्वयं की पहचान छिपाने की चेष्टा करना इत्यादि कई घटनाओं के सजीव चित्रण को उस वातावरण में पहुँच कर जीने की कोशिश कर रहा था . हालाँकि ये कहना भी उनके मुँह पर एक जोरदार तमाचा ही होगा कि मैं दलितों के प्रति सहानुभूति प्रकट कर रहा हूँ . क्योंकि मेरी मान्यता है कि ये सहानुभूति नहीं स्वानुभूति का विषय है .
अब प्रस्थान करते हैं शीर्षक की ओर तथा उस घटना की ओर जिसने मुझे बाध्य किया इसे शब्दबद्ध करने के लिए . दिन के साढ़े बारह बज रहे थे . ‘कॉटेज येस प्लेस’ होटल से एक परिचित से मिलकर बाहर निकला ही था कि चिलचिलाती धूप में अनगिनत प्रश्नों की वर्षा होने लगी यथा – तीन बजे तक कॉलेज पहुँचना है, तब तक क्या किया जाए ? मेट्रो से चला जाए अथवा बस से ? कहीं घूमने चला जाए या फिर क्या किया जाए ? विचारों की गलियों से प्रश्नों तथा मस्तिष्क के असंख्य तरंगों को कूद-फाँद कर तेजी से आगे बढ़ा चला जा रहा था कि चौराहे के एक रास्ते ने मुझे अपनी ओर खींचा . मैं सम्मोहित-सा चलता गया या शायद सड़क ही चल रही हो, कुछ याद नहीं . हाँ, इतना याद है सूर्य सिर पर था, मानो अभी हाथ ऊपर करूँ तो छू लूँ .
पैदल चलना मुझे बचपन से पसंद है . नहीं-नहीं आदत-सी हो गई है . तीन किलोमीटर पैदल चलकर विद्यालय जाना और फिर वापस पैदल आना, इसे ‘पसंद’ कहना समीचीन नहीं होगा . अब मस्तिष्क एक फैसले पर अटल हो गया था कि – रामकृष्ण आश्रम मार्ग मेट्रो स्टेशन से शिवाजी स्टेडियम तक पैदल जाना है, वहाँ से बस से कॉलेज जाना है . ‘गोल मार्केट’ होते हुए आगे बढ़ा कि अचानक वह गिरिजाघर दिखा जिसमें प्रवेश पाने के लिए गत ‘क्रिसमस डे’ पर पूरे तीन घंटे कतार में खड़ा होना पड़ा था . इसके कुछ ही दिन बाद ‘पी. के.’ फिल्म देखा जिसमें इसी स्थान को दिखाया गया है जहाँ मैं अभी खड़ा हूँ . पलक झपकते ही मन में विचार आया कि अन्दर चला जाए . सभी ज्ञानेन्द्रियों ने बिना किसी तर्क-वितर्क के स्वीकृति दे दी . दरवाजे के ठीक पाँच कदम चलने पर ‘ईशा मसीह’ की एक प्रतिमा है . प्रतिमा के सामने एक दम्पति मोमबत्ती जला रहे थे . प्रतिमा से थोड़ा हटकर एक विशाल चित्र है जिसपर लिखा है –
“प्रणाम मरियम, कृपापूर्ण, प्रभु तेरे साथ है, धन्य है तू स्त्रियों में और धन्य है तेरे गर्भ का फल, येशु। हे संत मरियम! परमेश्वर की माँ! प्रार्थना कर हम पापियों के लिए, अब और हमारे मरने के समय। अमेन!”
        इसके आगे लिखा है –
“हे परम दयालु कुँवारी मरियम, याद कीजिये कि यह कभी सुनने में नहीं आया कि कोई आपकी मदद माँगने और आपकी विनतियों की सहायता खोजने आपके पास आया हो, और आपसे असहाय छोड़ा गया हो . हे कुँवारियों की कुँवारी, हे मेरी माँ . इसी आसरे से मैं आपके पास दौड़ा आता हूँ और कराहते हुए पापी के रूप में आपके सामने खड़ा हूँ . हे परमेश्वर की शब्द की माँ, मेरे शब्दों को अस्वीकार मत कीजिये, पर दया से उनको सुनिये और पूरा कीजिए . आमेन .”
 इस प्रार्थना के कुछ शब्द मुझे खटक रहे थे यथा – पापी, कुँवारी, दया इत्यादि . इस प्रार्थना के रचनाकार को मन-ही-मन भला बुरा कहा कि- तुम पापी होगे, मैं नहीं हूँ . जो मेरा कर्त्तव्य है उसे पूर्ण इमानदारी से पूरा करने के लिए हमेशा प्रयासरत रहता हूँ या कर्त्तव्य नहीं भी निभाता तो कोई पाप तो नहीं कर रहा हूँ ना . क्योंकि जो कुछ भी हो रहा है अच्छा हो रहा है फिर पाप कैसा ? सब पुण्य है, जो पाप कर रहा है वह भी पुण्य कर रहा है . दूसरा शब्द है कुँवारी अर्थात् ईसा मसीह की माँ मरियम कुँवारी थी . इस शब्द पर टिप्पणी करने की समझ मुझमें नहीं है . तीसरा शब्द है दया अर्थात् हम मरियम से यह प्रार्थाना कर रहे हैं कि हमने जितने भी पाप किये हैं
(प्रार्थना के कथनानुसार), दया करके उन पापों को क्षमा कर दें . क्षमा क्यों कर दें ? जब पाप किया है तो इसका दण्ड भोगने से डर कैसा ? पाप करते समय मन में जो हिम्मत, आत्मविश्वास, हौसला, उमंग, उत्साह इत्यादि भाव हिलोरे मार रहे थे उन्हें स्मरण करो और दण्ड भुगतने के लिए स्वयं को तैयार करो .
बैग से कैमरा निकालकर मैंने कुछ चित्र लिए और अन्दर की ओर बढ़ा . गिरजाघर के बाहर एक भी जूते-चप्पल ना देखकर सोच में पड़ गया कि चप्पल निकालकर कहाँ रखूँ क्योंकि पिछले बार जब यहाँ आया था तो इतनी भीड़ थी कि ठीक से कुछ याद नहीं . अन्दर तो नहीं ले जा सकते . या हो सकता है अन्दर कोई व्यक्ति ना हो ? इधर-उधर टहलने लगा कि कोई आएगा तो देखता हूँ वह चप्पल या जूते उतार कर कहाँ रखता है . अचानक दो व्यक्ति आते दिखाई पड़े, मैं गौर से देखने लगा . पर ये क्या ? ये लोग तो जूता पहनकर ही अन्दर चले गए . मुझे लगा अंदर जूता घर होगा जैसा कि कमल मंदिर, राजघाट, बंगला साहिब गुरुद्वारा, अक्षरधाम मंदिर, छत्तरपुर मंदिर इत्यादि में है . अन्दर गया तो जूता घर दिखा ही नहीं, अन्दर देख रहा हूँ बीस-पच्चीस लोग बेंच पर बैठे हैं, प्रार्थना कर रहे हैं और जूते भी पहने हुए हैं . प्रायः बचपन से आज तक कभी भी, कहीं भी मैं पीछे नहीं बैठा, इसीलिए बीच की एक बेंच पर बैठ गया जिसके आगे और पीछे वाले बेंच पर भी कोई नहीं था . जगह-जगह पर लिखा है – “कृपया मौन रहें” . मैं मौन हो गया, जेब से मोबाइल निकालकर उसे भी मौन कर दिया .
मेरे ठीक सामने लाल रंग की दो पुस्तकें रखी थीं . एक को उठाकर पृष्ठ पलटने लगा . किन्तु मेरा ध्यान पुस्तक पर कम और वहाँ उपस्थित व्यक्तियों की गतिविधियों पर अधिक था . कौन किस प्रकार बैठा है, किस प्रकार हाथ जोड़े है, आँखें बंद हैं या खुली है इत्यादि . ठीक सामने की दीवार पर धोती पहने एक व्यक्ति के दोनों हाथों और पैरों पर कील ठोका हुआ प्रतिमा है, शायद वह ईसा मसीह की प्रतिमा है . प्रतिमा के आगे लगभग एक मीटर से भी लम्बी तीन मोमबत्तियाँ एक तरफ तथा तीन दूसरी तरफ है . दोनों तरफ के तीनों मोमबत्तियों के बीच में दो छोटी-छोटी मोमबत्तियाँ है . अर्थात् छः बड़े और चार छोटे मोमबत्ती हमेशा जलते रहते हैं . हालाँकि प्रकाश के लिए आवश्यकता से भी अधिक विद्युत् लैम्प लगे हुए हैं .
  पुस्तक के पृष्ठ को पलट रहा हूँ . सम्पूर्ण पुस्तक अंग्रेजी में गद्यात्मक शैली में है, शायद ‘बाइबिल’ हो ? नहीं जानता . टन-टन !! घंटा बजा . एक व्यक्ति सफ़ेद रंग का कपडा पहने हुए, कुछ व्यक्ति उसे ‘फादर’ कह रहे हैं, अभी-अभी प्रतिमा के सम्मुख आया है . वह उद्घोषक मंच पर आकर ‘माइक’ ठीक करके कुछ बोलने लगा . सभी लोग खड़े होकर कुछ बोले और एक सुर में कुछ गाने लगे, मैं मौन रहा . यह भारत का सबसे बड़ा गिरजाघर है जो लगभग 80 साल पुराना है . मुझे स्पष्ट सुनाई नहीं दे रहा था, क्योंकि पहले कभी ये सब सुना भी नहीं था और दीवार से टकराकर आवाजें गूँजने लगती थी . सफ़ेद पोशाक वाला व्यक्ति पुस्तक के अध्याय का नाम कुछ इस प्रकार बोला जैसे विद्यालय के शिक्षक बोलते थे – फलाना अध्याय के फलाना पाठ का फलाना पृष्ठ संख्या . मैंने भी वही पृष्ठ निकाला किन्तु जो वह बोल रहा था वह उस पृष्ठ पर नहीं लिखा था और जो उस पृष्ठ पर लिखा था वह उसे बोल नहीं रहा था . पुस्तक को उसके उचित स्थान पर रखकर विचारों के मटमैले पानी में कूद पड़ा . उस पानी में बहुत देर ढूंढने के बाद एक ही वस्तु छनकर बाहर निकला – प्रसाद . हाँ, प्रसाद लेकर ही जाऊँगा . मंदिरों में तो प्रसाद के समय ही सारी भीड़ इकट्ठा होती है और यहाँ तो भीड़ भी नहीं है फिर प्रसाद कैसे छोड़ा जाए ? सभी एक सुर में अंग्रेजी में गा रहे थे, मैं अकेला था जो केवल सुन रहा था . सभी चुप हो गए और अपने-अपने स्थान पर बैठ गए . उस व्यक्ति ने चमचमाते हुए बर्तन को उठाकर हमारी ओर दिखाया और फिर उसे अकेले ही पी गया . शायद उस बर्तन में कुछ पेय पदार्थ रहा होगा .
एक महिला उसके पास गई और घुटनों के बल बैठकर दंडवत की . फिर वह महिला दुसरे उद्घोषक मंच पर जाकर उसी पुस्तक से कुछ गाने लगी . सब लोग खड़े हो गए, मुझे भी खड़ा होना पड़ा . फिर वही कहानी . सभी गा रहे थे, मैं मौन था . कुछ देर बाद वह महिला चुप हो गई और सभी लोग बैठ गए . कुछ समय पश्चात पुनः वह व्यक्ति उसी उद्घोषक मंच पर आया जिसपर अभी-अभी महिला गा रही थी . वह फिर से गाने लगा, सभी गाने लगे, मैं मौन रहा . इस मध्य आगे और पीछे के व्यक्तियों के गतिविधियों का मैं अध्ययन करता रहा . प्रार्थना खत्म हुई, सब लोग अपने चारों तरफ एक-दूसरे को हाथ जोड़कर नमस्कार करने लगे . आगे एक व्यक्ति थे जिसने पीछे मुड़कर मुझे नमस्कार किया तो मैंने भी उसे नमस्कार किया और चारों ओर मुड़कर सभी को नमस्कार किया .
तीनों प्रार्थना सुनने के बाद मुझे यही समझ आया कि जो बात मुख्यद्वार के पास उस चित्र पर लिखा है वही प्रार्थना यहाँ पर सीधा ‘ईसा मसीह’ से की जा रही है . हे प्रभु, आप हम पर दया करें और हमारी भूल को क्षमा कर दें . इसी बात को किसी महान कवि ने अपने रचना कौशल और सृजनात्मकता के गुण से पुस्तक का रूप दे दिया होगा .
दिपेश कुमार
मेरा उत्साह चरम पर था . प्रसाद वितरण, अहा ! भक्ति का मूल रस तो इसी में है . देखते ही देखते दो कतारें लग गई, किन्तु इस कतार में मंदिरों वाली कतार जैसा ना तो भीड़ थी, ना उमंग ना ही उत्साह . यहाँ प्रसाद लेने के लिए ना तो कोई परेशान दिख रहा था, ना धक्कामुक्की थी और ना ही कोई ऊँची आवाज में प्रसाद माँग रहा था . अपनी जगह पर बैठा मैं चिंता में पड़ गया कि ये कैसा प्रसाद वितरण है ? एक लड़की बाहर से आई, बैग लटकाए कतार में खड़ी हो गई . बगल के कतार से एक व्यक्ति ने उसे बैठने का इशारा किया, वह जाकर बैठ गई . मुझे लगा कि बैग लेकर कतार में खड़ा होने के कारण उसे बैठा दिया गया है . इधर-उधर देखा, आसपास के सभी लोग अनुशासन का पालन बड़ी कठोरता से किये जा रहे थे . बैग को वहीं छोड़कर मैं भी कतार में खड़ा हो गया . इतने देर के बाद उठने का कारण यही था कि मैं तय नहीं कर पा रहा था कि प्रसाद में है क्या ? सुना है यहाँ शराब चढ़ाई जाती है . खैर, अब मैं कतार में खड़ा हूँ . आगे का दृश्य देखकर मुझे अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ . ‘फादर’ प्रसाद दे नहीं रहे हैं बल्कि मुँह में खिला रहे हैं . गिरजाघर में इतने देर बैठने के बाद मेरे मन में ‘इसाई’ धर्म के प्रति अत्यधिक श्रद्धा-भाव उत्पन्न हो गया था . यह दृश्य देखकर तो मैं इतना अधिक प्रभावित हुआ कि इसका वर्णन शब्दों में कर ही नहीं जा सकता . हाँ, एक बात और थी कि प्रसाद वितरण के आरम्भ से ही कोई प्रार्थना गाई जा रही थी . किन्तु मैं अब भी मौन था . बगल के कतार में खड़े उसी व्यक्ति ने जिसने अभी-अभी एक लड़की को बैठने का आदेश दिया था मुझे चुपचाप खड़ा देखकर धड़ल्ले से पूछ बैठा – “आप इसाई हो?” मैं इस समय किसी भी प्रश्न के आक्रमण के लिए नहीं बल्कि प्रसाद लेने के लिए तैयार था . और ऐसे प्रश्न मुझसे पूछे जाएंगे, ऐसा तो सपने में भी नहीं सोचा था वह भी भारत जैसे देश के सबसे बड़े गिरिजाघर में . “नहीं” मैंने तुरंत जवाब दिया . “तो फिर बैठ जाओ” उसने कहा .
अपने स्थान पर आकर मैं धम्म से बैठ गया और मस्तिष्क में ‘जूठन’ के एक-एक शब्द से लेकर छब्बीस जनवरी और पंद्रह अगस्त के नारे ‘हिन्दू मुस्लिम सिक्ख इसाई, आपस में हैं भाई-भाई’ में घनघोर युद्ध होने लगा . भीष्म पितामह की तरह मैं युद्ध को देखने के लिए विवश था और मन में केवल एक ही विचार आ रहा था कि हिन्दू हिन्दू है, मुसलमान मुसलमान, सिक्ख सिक्ख है और इसाई इसाई . बैग उठाकर बहुत तेजी से मैं बाहर निकला बाहर कोई अंग्रेज सिपाही नहीं था . मोबाइल निकालकर कैलेण्डर देखा – इक्कीस अगस्त दो हजार पंद्रह .


यह रचना दीपेश कुमार जी द्वारा लिखी गयी है . आप बी. ए. हिंदी (प्रतिष्ठा) द्वितीय वर्ष के छात्र है . आप साहित्य की विभिन्न विधाओं में लेखनी चलाते हैं व स्वतंत्र रूप से लेखन कार्य में रत हैं . 

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प्रसाद नहीं मिला
पिछले काफी दिनों से ‘जूठन’ पढ़ रहा था . कल अंतिम पृष्ठ का अंतिम शब्द भी पढ़ डाला . समाज में दलितों का तिरस्कार, शोषण, दमन, बाबा साहेब के प्रति सवर्णों की घृणा, विकसित और उपेक्षित अवर्णों के बीच बढ़ती खाई, दलित व्यक्तियों द्वारा स्वयं की पहचान छिपाने की चेष्टा करना इत्यादि कई घटनाओं के सजीव चित्रण को उस वातावरण में पहुँच कर जीने की कोशिश कर रहा था . हालाँकि ये कहना भी उनके मुँह पर एक जोरदार तमाचा ही होगा कि मैं दलितों के प्रति सहानुभूति प्रकट कर रहा हूँ . क्योंकि मेरी मान्यता है कि ये सहानुभूति नहीं स्वानुभूति का विषय है .
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