चीफ की दावत

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Chief Ki Dawat by Bhisham Sahni.ऐसा होतो है कि बच्चे जब बड़े हो जाते हैं, उन्हें समाज में कामियाबी हासिला होती है, वह अपने अपढ़ माता-पिता को लोगों के सामन, दुनिया के सामने पेश करने में लज्जित महसूस हैं। भले ही उस बच्ची की पढ़ाई के लिए पिता ने कईं रातें सिर्फ पानी पीकर ही क्यों न गुजारी हो और मां ने अपना मंगलसूत्र तक क्यों न बेच दिया हो। बच्चों के बड़े होने के साथ-साथ माता-पिता को भी बूढ़ापे की दहलीज से गुजरना पड़ता है तभी यह घर के किसी कोने में पड़े कूड़े से कम नहीं लगते। भीष्म सहानी की चीफ की दावत एक ऐसी ही कहानी है जिसमें मां का बलिदान अपने अधिकारी बेटे को फर्ज ही लगता है। बूढ़ी विधवा मां उसके लिए बोझ बन चुकी है। कहानी में तीन मुख्य किरदार मिस्टर शामनाथ, उनकी पत्नी और बूढ़ी मां।

शिक्षित पीढ़ी की अशिक्षित आचरण की जीवंत पेशकश है 'चीफ की दावत'
पुस्तक-चीफ की दावत
लेखक - भीष्म साहनी
ऐसा होतो है कि बच्चे जब बड़े हो जाते हैं, उन्हें समाज में कामियाबी हासिला होती है, वह अपने अपढ़ माता-पिता को लोगों के सामन, दुनिया के सामने पेश करने में लज्जित महसूस हैंभले ही उस बच्ची की पढ़ाई के लिए पिता ने कईं रातें सिर्फ पानी पीकर ही क्यों न गुजारी हो और मां ने अपना मंगलसूत्र तक क्यों न बेच दिया होबच्चों के बड़े होने के साथ-साथ माता-पिता को भी बूढ़ापे की दहलीज से गुजरना पड़ता है तभी यह घर के किसी कोने में पड़े कूड़े से कम नहीं लगते। भीष्म सहानी की चीफ की दावत एक ऐसी ही कहानी है जिसमें मां का बलिदान अपने अधिकारी बेटे को फर्ज ही लगता हैबूढ़ी विधवा मां उसके लिए बोझ बन चुकी हैकहानी में तीन मुख्य किरदार मिस्टर शामनाथ, उनकी पत्नी और बूढ़ी मां
मां घर की फालतू सामन की तरह
कहानी में लेखक ने एक बूढ़ी मां के दर्द को बड़ी ही मार्मिकता से उभारा है जो अपने बेटे और बोहू के लिए किसी फालतू सामान से कम नहींकहानी के यह अंश इस कथन को स्पष्ट करते हैं, 'आज मिस्टर शामनाथ के घर चीफ की दावत थी। शामनाथ और उनकी धर्मपत्नी को पसीना पोंछने की फुर्सत न थीपत्नी ड्रेसिंग गाउन पहने, उलझे हुए बालों का जूड़ा बनाए मुँह पर फैली हुई सुर्खी और पाउड़र को मले और मिस्टर शामनाथ सिगरेट पर सिगरेट फूँकते हुए चीजों की फेहरिस्त हाथ में थामे, एक कमरे से दूसरे कमरे में आ-जा रहे थे। आखिर पाँच बजते-बजते तैयारी मुकम्मल होने लगी। कुसिर्याँ, मेज, तिपाइयाँ, नैपकिन, फूल, सब बरामदे में पहुँच गए

ड्रिंक का इंतजाम बैठक में कर दिया गयाअब घर का फालतू सामान अलमारियों के पीछे और पलंगों के नीचे छिपाया जाने लगातभी शामनाथ के सामने सहसा एक अड़चन खड़ी हो गई, माँ का क्या होगा? इस बात की ओर न उनका और न उनकी कुशल गृहिणी का ध्यान गया था.मिस्टर शामनाथ, श्रीमती की ओर घूम कर अंग्रेजी में बोले - 'माँ का क्या होगा?' श्रीमती काम करते-करते ठहर गईं, और थोड़ी देर तक सोचने के बाद बोलीं - 'इन्हें पिछवाड़े इनकी सहेली के घर भेज दो, रात-भर बेशक वहीं रहें। कल आ जाएँ'शामनाथ सिगरेट मुँह में रखे, सिकुडी आँखों से श्रीमती के चेहरे की ओर देखते हुए पल-भर सोचते रहे, फिर सिर हिला कर बोले - 'नहीं, मैं नहीं चाहता कि उस बुढ़िया का आना-जाना यहाँ फिर से शुरू हो। पहले ही बड़ी मुश्किल से बंद किया थामाँ से कहें कि जल्दी ही खाना खा के शाम को ही अपनी कोठरी में चली जाएँ..मेहमान कहीं आठ बजे आएँगे इससे पहले ही अपने काम से निबट लें'



चीफ के दावत की तैयारियों के ईर्दगिर्द घूमती कहानी
कहानी में मिस्टर श्यामनाथ ने पदोन्नति की लालत में अपने अंग्रेज चीफ को दावत पर बुलाया है लेकिन इसमें बड़ी समस्या है अनपढ़ मांघर के किस कोने में इसे छिपाया जाएकिसके घर भेजा जाए ताकि चीफ की नजर
मां पर न पड़ेमिस्टार शामनाथ इसीलिए भी मां को चीफ की नजरों से बचाना चाहते थे क्योंकि उन्हें लगता था कि कहीं मां का ग्रामीण स्वभाव उनकी पदोन्नति के पथ की बाधा न बन जाएवह अपनी पदोन्नति के बीच आने वाली मां को हटाने के लिए किस हद तक गुजर सकते थे कहानी की इस अंश से स्पष्ट होता है कि'कपड़े कौन से पहनोगी, माँ? जो है, वही पहनूँगी, बेटा! जो कहो, पहन लूँशामनाथ को चिंता थी कि अगर चीफ का साक्षात माँ से हो गया, तो कहीं लज्जित नहीं होना पड़ेमाँ को सिर से पाँव तक देखते हुए बोले - तुम सफेद कमीज और सफेद सलवार पहन लो, माँपहन के आओ तो, जरा देखूं '
मां के दर्द की अनकहीं दास्तां
शामनाथ के घर चल रही पार्टी के बीच बरामदे में ऐन कोठरी के बाहर माँ अपनी कुर्सी पर ज्यों-की-त्यों बैठी थीं। मगर दोनों पाँव कुर्सी की सीट पर रखे हुए, और सिर दाएँ से बाएँ और बाएँ से दाएँ झूल रहा था और मुँह में से लगातार गहरे खर्राटों की आवाजें आ रही थींमां को देखते ही शामनाथ क्रुद्ध हो उठेजी चाहा कि माँ को धक्का दे कर उठा दें, और उन्हें कोठरी में धकेल दें, मगर ऐसा करना संभव न था, चीफ और बाकी मेहमान पास खड़े थेमाँ को देखते ही देसी अफसरों की कुछ स्त्रियाँ हँस दीं कि इतने में चीफ ने धीरे से कहा - पुअर डियर! माँ हड़बड़ा के उठ बैठींसामने खड़े इतने लोगों को देख कर ऐसी घबराई कि कुछ कहते न बनाजब चीफ ने मां सेहाथ मिलाया तभी बेटे शामनाथ मां कोहाथ मिलाने को मजबूर करना, अंग्रेजी में बात करने को कहना, मां को गाना गाने को बाध्य करना एक मां के दर्द की अनकही दास्तां ही तो हैकहानी में मिस्टर शोमनाथ के चीफ मां से फुलकारी बनाने का आग्रह करते हैंमाँ पहले तो चुप रहती हैफिर डरते-डरते धीरे से बोलीं - अब मेरी नजर कहाँ है, बेटा! बूढ़ी आँखें क्या देखेंगी? मगर माँ का वाक्य बीच में ही तोड़ते हुए शामनाथ साहब को बोले - वह जरूर बना देंगीआप उसे देख कर खुश होंगेजब मेहमान बैठ गए और माँ पर से सबकी आँखें हट गईं, तो माँ धीरे से कुर्सी पर से उठीं, और सबसे नजरें बचाती हुई अपनी कोठरी में चली गईंमगर कोठरी में बैठने की देर थी कि आँखों में छल-छल आँसू बहने लगे। वह दुपट्टे से बार-बार उन्हें पोंछतीं, पर वह बार-बार उमड़ आते, जैसे बरसों का बाँध तोड़ कर उमड़ आए होंमाँ ने बहुतेरा दिल को समझाया, हाथ जोड़े, भगवान का नाम लिया, बेटे के चिरायु होने की प्राथर्ना की, बार-बार आँखें बंद कीं, मगर आँसू बरसात के पानी की तरह जैसे थमने में ही न आते थे
अपमान के बावजूद बेटे की तरक्की की कामना
  माँ दीवार से सट कर बैठी आँखें फाड़े दीवार को देखे जा रही थींघर के वातावरण में तनाव ढीला पड़ चुका थामुहल्ले की निस्तब्धता शामनाथ के घर भी छा चुकी थी, केवल रसोई में प्लेटों के खनकने की आवाज आ रही थीतभी सहसा माँ की कोठरी का दरवाजा जोर से खटकने लगाशामनाथ अपनी मां के पास आएमां ने जब हरिद्वार जाने की बात कही को शामनाथ का क्रोध बढ़ने लगा था, बोलते गए - तुम मुझे बदनाम करना चाहती हो, ताकि दुनिया कहे कि बेटा माँ को अपने पास नहीं रख सकतातुम चली जाओगी, तो फुलकारी कौन बनाएगा? साहब से तुम्हारे सामने ही फुलकारी देने का इकरार किया हैमां ने कहा कि मेरी आँखें अब नहीं हैं, बेटा, जो फुलकारी बना सकूँतुम कहीं और से बनवा लोजब शामनाथ मां के फुलकारी बनाने पर उन्हें तरक्की मिलने की बात कही तब मां ने कहा, 'तो मैं बना दूँगी, बेटा, जैसे बन पड़ेगा, बना दूँगीऔर माँ दिल ही दिल में फिर बेटे के उज्ज्वल भविष्य की कामनाएँ करने लगीं '

इतिश्री सिंह के निजी विचार
इतिश्री सिंह
चीफ की दावत की सबसे अच्छी बात यह है कि इसकी भाषा अत्यंत ही सरल है जिसे समझने में बिलकुल भी कठिनाईं नहीं होतीलेखक ने शिक्षित पीढ़ी की अशिक्षित आचरण को जीवंतता से पेश किया हैभले ही इसे महाउपन्यास या महागाथा नहीं कहा जा सकता लेकिन अगर आप इसे पहली बार पढेंगे तो दोबारा भी जरुर पढ़ने को मन करेगा


यह समीक्षा इतिश्री सिंह राठौर जी द्वारा लिखी गयी है . वर्तमान में आप हिंदी दैनिक नवभारत के साथ जुड़ी हुई हैं. दैनिक हिंदी देशबंधु के लिए कईं लेख लिखे , इसके अलावा इतिश्री जी ने 50 भारतीय प्रख्यात व्यंग्य चित्रकर के तहत 50 कार्टूनिस्टों जीवनी पर लिखे लेखों का अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद किया. इतिश्री अमीर खुसरों तथा मंटों की रचनाओं के काफी प्रभावित हैं.


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