मजदूरी छीन रहा मासूमों का बचपन

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इस साल शांति के नोबेल पुरस्कार के लिए अलग - अलग देश दो ऐसे लोग के नामों की घोषणा हुई जो कि बच्चों के खिलाफ हो रही हिंसा , उत्पीड़न को रो...

इस साल शांति के नोबेल पुरस्कार के लिए अलग-अलग देश दो ऐसे लोग के नामों की घोषणा हुई जो कि बच्चों के खिलाफ हो रही हिंसा, उत्पीड़न को रोकने की दिशा में काम कर रहे हैं. भारत के साामाजिक कार्यकर्ता कैलाश सत्यार्थी और पाकिस्तान की मलाला यूसुफजई के नामों की घोषणा हुई. कैलाश सत्यार्थी 'बचपन बचाओ' नाम का एक ग़ैर सरकारी संगठन चलाते हैं जो बाल मजदूरी के खिलाफ काम करता है वहीं मलाला यूसुफजई को पाकिस्तान के क़बायली इलाकों में लड़कियों की शिक्षा की मुहिम चलाने के लिए चरमपंथियों की गोली का निशाना बनना पड़ा. यही वजह है कि जैसे ही शांति के नोबेल पुरस्कार के लिए पाकिस्तान की सत्रह वर्षीय छात्रा मलाला युसुफजई के साथ भारत के सामाजिक कार्यकर्ता कैलाश सत्यार्थी का नाम आया, लोगों की दिलचस्पी उनके बारे में अचानक बढ़ गई और फिर से बाल हिंसा संबंधी मुद्दों को लोग छेड़ने लगे. यह मुद्दा उठाना जरूरी भी है क्योंकि जिस देश के भविष्य की हैसियत कूड़ेदान में पड़े किसी कचरे की तरह हो उस देश का वर्तमान चमचमाती ईमारतें बनवा कर कैसे सुधारा जा सकता है.

यह देखा गया है कि बच्चों को अभी भी अपने अधिकार पूरे तौर पर नहीं मिल पाते. अनेक बच्चों को भरपेट भोजन नसीब नहीं होता और स्वास्थ्य संबंधी देखभाल की सुविधाएं तो है ही नहीं और यदि हैं भी तो बहुत कम. वे बहुत ही असुरक्षित जीवन जी रहे हैं. भूख और कुपोषण के जाता है शिकार इन बच्चों का जीवन असमय ही मृत्यु का शिकार हो. प्राय: शैशवावस्था अथवा बाल्यावस्था में ही वे कालकवलित हो जाते हैं.बड़े बच्चों की तस्करी होती रहती है और वे प्राय: अपने घरों से दूर मजदूर के रूप में काम करते नजर आते हैं. यह एक अविवादित तथ्य है कि कार्य पर जाने के रास्ते में और यहां तक ​​कि कार्यस्थल पर भी, बच्चों का शोषण किया जाता है. यहां तक ​​कि, वे बच्चे जो अपने समाज के बीच रहकर काम पर जाते हैं, वे भी क्रूर बाजारी ताकतों के शिकार बनकर रह जाते हैं. बाल विवाह, बच्चों की तस्करी और लड़कियों के साथ भेदभाव प्रमुख चुनौतियां आज भी बनी हुई हैं. ऐसे बच्चों की संख्या बढ़ती जा रही हैं, जो एचआईवी और एड्स से प्रभावित और संक्रमित हैं.
तेजी से हो रहे आर्थिक विकास और सस्ते दरों पर खाद्यान्न की उपलब्धता तथा बच्चों के लिए पूरक खाद्य कार्यक्रमों के बावजूद पांच वर्ष की आयु तक के लगभग आधे बच्चे औसत से कम वजन के हैं. इसके अलावा वर्ष 2010-11 में स्कूल छोड़ने वाले बच्चों की सख्या 2009-के मुकाबले बढ़ी है. तमिलनाडु और गुजरात इस मामले में आगे बताए जा रहे हैं. शैक्षिक वार्षिक रिपोर्ट 2010 के मुताबिक बच्चों के स्कूल छोड़ने की राष्ट्रीय दर 3.5 प्रतिशत रही है. रिपोर्ट के अनुसार हालांकि बंगाल में बच्चों के स्कूल छोड़ने की दर कम हुई है, 5.6 प्रतिशत से घटकर 4.6 प्रतिशत. मेघालय में यह दर 7.2 प्रतिशत, राजस्थान में 5.8 प्रतिशत, उत्तर प्रदेश में 5.2 प्रतिशत, असम में 5 और बिहार में 3.5 प्रतिशत है. इस खतरे की असल वजह क्या है? शिक्षा के प्रति लोगों की उदासीनता या फिर भूख और निपट गरीबी ? सरकारी स्थान का अभाव आदि की बातें करती है लेकिन क्या इसमें सच्चाई है रिपोर्ट तो इसके लिए शिक्षकों की कमी, स्कूलों के लिए? इसकी अनदेखी करते हुए न तो बचपन सुधारा जा सकता है और न ही उनका भविष्य. इसी तरह संयुक्त राष्ट्र संघ की अनुषंगी संस्था खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) की रिपोर्ट के अनुसार भारत में 23 करोड़ के आसपास लोग भूख के शिकार हैं उल्लेखनीय है कि 1990-92 में 21 में करोड़ लोग भूख से त्रस्त थे. इस मामले में ओडिशा, बिहार, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की स्थिति तो अफ्रीका के इथियोपिया, कांगो और चाड़ जैसी है. इसमें 5,000 बच्चे प्रतिदिन कुपोषण का शिकार होते हैं


इतिश्री सिंह राठौर 
प्रगति के तमाम दावों के बावजूद हमारा देश बाल सूचकांक में विश्व के तमाम देशों से आज भी पिछड़ा हुआ है. अंतराराष्ट्रीय संस्था 'सेव द चिल्ड्रेन' के सर्वेक्षण के अनुसार बाल अधिकारों के संबंध में 2005 के 2010 से बीच भारत की स्थिति में और गिरावट आई है. आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2011-12 में बाल तस्करी के 1.26 लाख मामले दर्ज किए गए थे. नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो की जानकारी के अनुसार 96 हजार बच्चे देशभर में हर साल लापता हो रहे हैं जिसमें 70 प्रतिशत की आयु 12 से 18 साल के बीच है. एनसीआरबी और यूनिसेफ के अनुसार देशभर में 20 प्रतिशत माता-पिता गरीबी के चलते अपनी बेटियों को बेच रहे हैं. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की (ट्रैफिकिंग इन वूमन एंड चिल्ड्रेन इन इंडिया) नामक रिपोर्ट के अनुसार मासूम बच्चों की तस्करी रोकने के लिए जितनी भी कोशिशे की जाती है उनमें ऐसी तमाम खामियां होती हैं जिनका फायदा उठाकर बच्चों के तस्कर उनकी तस्करी करते हैं. आज देश की स्थिति ऐसी हो चुकी है कि 14 साल का छुटकन भूख और गरीबी से तंग आकर राह भटकर माओवादी बन कर बंदुक चलाना सीख रहा है और देश के बुद्धीजीवी हिंसा खत्म करने के सपने दिखा रहे हैं. सालियासाही की बस्ति में रहने वाली सात साल की विकलांग बच्ची का बलात्कार और उसकी हत्या कर दी जाती है लेकिन उसे न्याय दिलाने के लिए कोई खड़ा नहीं होता और उच्च पदस्थ अधिकारी नारियों की सुरक्षा की बात कर रहे हैं. आज भी हिंदुस्तान के गांव जिनका बचपन मजदूरी की गलियारों में कट जाता है शहरों में ऐसे-बच्चे हैं. उन्होंने कभी बचपन का स्वाद तक न चखा और उनकी जवानी भी दूसरे के झूठन उठाते-उठाते बूढ़ापे में तब्दील हो जाती है. देश का भाग्य हो चाहें हमारी विड़ंबना यहां बाल मजदूरी के खिलाफ आवाज उठाने वाले लोग घरों में बच्चों से मजदूरी कराते हैं. यहां कहने का तात्पर्य यह है कि हर बार कोई मलाला आतंकियों के खिलाफ आवाजा उठाने नहीं आएगी या हर बार मजदूरी कर रहे बच्चों को बचाने कोई कैलाश सत्यार्थी भी नहीं आऐगा, इसके के खिलाफ सभी को मिल कर आवाजें बुलंद करनी होगी.



यह लेख इतिश्री सिंह राठौर जी द्वारा लिखी गयी है . वर्तमान में आप हिंदी दैनिक नवभारत के साथ जुड़ी हुई हैं. दैनिक हिंदी देशबंधु के लिए कईं लेख लिखे , इसके अलावा इतिश्री जी ने 50 भारतीय प्रख्यात व्यंग्य चित्रकर के तहत 50 कार्टूनिस्टों जीवनी पर लिखे लेखों का अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद किया. इतिश्री अमीर खुसरों तथा मंटों की रचनाओं के काफी प्रभावित हैं.

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