काव्येतिहास में महेन्द्रभटनागर का रचना-जगत

SHARE:

महेंद्र भटनागर  डॉ. महेन्द्रभटनागर का रचनात्मक नीड़ आधुनिक सोच और सामाजिक सरोकारों के महीन तन्तुओं का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ है। उनके...

महेंद्र भटनागर 

डॉ. महेन्द्रभटनागर का रचनात्मक नीड़ आधुनिक सोच और सामाजिक सरोकारों के महीन तन्तुओं का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ है। उनके रचना-कर्म में मुझे ‘नवजागरण’ की पृष्ठभूमि अंतर्निहित-सी दिखाई देती है। नव जागरण के आंदोलनीय प्रभाव को जिन साहित्यकारों ने शिद्दत से आत्मसात किया, उनमें एक नाम डॉ.महेंद्रभटनागर का भी होना चाहिए। हालाँकि वे प्रगतिवाद के दूसरे चरण के रचनाकार माने जाते हैं। प्रमुख प्रगतिवादी कवियों से वे इस मायने में अलग दिखते हैं, क्योंकि उनके यहाँ न तो उस तरह की झंडाबरदारी दिखती है और न ही वह सोच (मार्क्सीय) जो प्रतिरोधात्मक और प्रतिक्रियात्मक विचार को रचना का प्रमुख प्रतिमान मानता है। बावज़ूद इसके डॉ. महेंद्रभटनागर के रचना-कर्म का उपजीव्य विचारों की संश्लिष्टता ही है।

हमारे देश में आधुनिकता का प्रादुर्भाव नवजागरण काल से माना जाता है। उस काल की जीवन पद्धतियों और सामाजिक सरोकारों पर विचार किया जाए तो वहाँ अनेक प्रकार की रूढ़ियों-कुरीतियों और आदर्शवादी ढकोसलों का अंधकार व्याप्त था। धार्मिक पाखंड, अस्पृश्यता, वर्गभेद और वर्णवाद आदि के कुहासे से पारस्परिक सम्बन्धों की भीतरी चूलें हिल चुकी थीं। ऐसी स्थितियों को लाने में जो सामंती और नियतिवादी सोच-संस्कार प्रवृत्त थे उन सब में एक बदलाव को लाना वास्तव में समय की एक ज़रूरत थी, क्योंकि हमारे कर्म-कर्तव्य, हमारी वैचारिक शक्ति द्वारा ही संचालित होते हैं। ऐसे समाज में बदलाव तभी संभव था जब साहित्य और समाज में नव-सृजन और नव-निर्माण का आह्वान हो। उस दौर में जो बदलाव आया उसके पीछे आधुनिक सोच और वैज्ञानिक तथ्यपरकता व तार्किकता आदि की सुदृढ़ पृष्ठभूमि ही निहित थी।

यहाँ यह भी विचार में रखना होगा कि जब ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ की स्थापना हो रही थी और मार्क्सवाद प्रासंगिक होने लगा था, उससे बहुत पहले पराधीन भारतीय समाज को उसकी निराशाजनक परिस्थितियों के बरक्स सामाजिक चेतना और स्वतंत्र सक्रिय आत्मबोध का सन्देश सर्वप्रथम महात्मा गांधी ने दिया था। सर्वविदित है कि गांधी भारतीय राजनीति का नेतृत्व ही नहीं कर रहे थे वरन् वे भारत के महान भविष्य-दृष्टा, विचारक और दार्शनिक के रूप में भी भारत को संबोधित कर रहे थे। उसी समकाल में हिन्दी साहित्य में आधुनिकता के पहले क्रान्तिकारी कवि महाप्राण निराला अपनी रचनाओं में लाकोन्मुखता और जन चेतना लेकर आए। दूसरे शब्दों में कहें तो वे नवजागरण की कर्मभूमि से रचनात्मक शक्ति का अवगाहन करते दिखाई देते हैं।  निराला का रचनात्मक नवजागरण परवर्ती कवियों का मार्गदर्शन करता दृष्टिगत होता है, अतः डॉ॰ महेंद्रभटनागर का निराला-नवजागरण से प्रभावित होना स्वभाविक ही है। हिन्दी काव्य-साहित्य में यह एक नया मोड़ था। निराला-साहित्य प्रगतिवाद के लिए चुनौती बनकर आया और निराला की 'बेला', 'नए पत्ते', 'कुकुरमुत्ता' और ‘जूही की कली’ आदि कृतियाँ प्रगतिवाद का नेतृत्व करती दिखाई देती हैं। प्रगतिवाद ही क्यों, बाद की संपूर्ण हिन्दी कविता का कथ्यात्मक भाषाई मिजाज़ जो परिवर्तित होता गया उसकी नींव में निराला के अतिरिक्त और कौन है?

निराला ने साहित्य के प्राचीन कोश में छुपी भाषा की अनेक चिनगारियों का वर्तमानीकरण कर दिया। सचाई ये है कि उन्होंने अभिव्यक्ति की मुक्ति के लिए शैली-शिल्प के नए गवाक्ष खोलकर रचनात्मक शैलियों को भयमुक्त किया। कहना होगा कि उपरोक्त तथ्यों का प्रभाव प्रगतिवादी कवियों में एक ज़रूरत के रूप में संस्कारित होता गया यही नहीं समय के तकाज़े को समझते हुए निराला स्वयं अपनी कथ्यात्मक भाषा का अतिक्रमण करते हैं और अन्ततः संस्कृतीय निष्ठा और सामासिकता से मुक्त होते हुए उन्होंने आम जन की भाषा को अपना लिया। वास्तव में कथ्य जब बदलता है तब भाषा के औज़ारों का बदलना भी स्वाभाविक हो जाता है। प्रगतिवादी रचनाकार अनुभूति के धरातल पर, समय की कविता को कहने में, यथार्थ और कलाभिरुचियों में सामंजस्य लेकर चले हैं। वास्तव में, प्रगतिवादी प्रवृत्तियों में साहित्य और समाज परस्पर एक पूरक तत्व के रूप में है। नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, शील, त्रिलोचन और शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ आदि की कविताई में भाषा का जो निर्भीकपन है, भाषा में जो कथ्य का खुलापन आया उसके पीछे निरालीय भाषा की ही दीप्ति दृष्टिगत है। हालाँकि यह भी स्पष्ट है कि सहजता और संप्रेषणीयता की दृष्टि से इन कवियों ने भाषा की अपनी नई ज़मीन तोड़ी है। आज़ादी के सन्दर्भ में नागार्जुन कह रहे थे —

खेत हमारे भूमि हमारी सारा देश हमारा है

इसीलिए तो हमको इसका चप्पा-चप्पा प्यारा है।

('हंस' : अप्रैल 1948)

भारत माँ के गालों पर कस कर पड़ा तमाचा है

रामराज में अब भी रावण नंगा होकर नाचा है।

('हंस' : जून 1949)

या जनमानस के होठों से मुन्नूलाल ‘शील’ ही यह रचना लोकप्रिय हो रही थी —

देश हमारा, धरती अपनी, हम धरती के लाल,

नया संसार बसाएंगे, नया इंसान बनाएंगे!

('अँगड़ाई' से)

राष्ट्रीय ओज और जनमानस को लामबंद करने का यही स्वर केदारनाथ अग्रवाल की कविता में कुछ अधिक विक्षुब्ध हो उठा है —

‘मैंने देखा है नग्न नृत्य, पापों से बोझिल धर्मकृत्य

भूखी आत्माओं का विलाप, पागल कुत्तों का सा प्रलाप!

('युग की गंगा' से)

1942-46 तक प्रयोगप्रिय कवि अज्ञेय के दो कविता संग्रह — ‘चिंता’ और ‘इत्यलम’ आ चुके थे। इन दोनों संग्रहों में छायावादी प्रभाव स्पष्ट है; किन्तु भाषा की प्रांजलता उन्हें निराला के निकट खड़ा कर देती है। 1943 में ‘तार सप्तक’ आ चुका था, जिसके प्रभा-मंडल में सप्तकेतर कवि भी अपनी पहचान बनाने में प्रयत्नशील थे। 5वें दशक में प्रगतिशील कविता का मुहावरा अपने चरम पर था और प्रयोगवाद अपनी जड़ें जमाने में संघर्षरत था। बहरहाल इसी समकाल में जनोन्मुखता और प्रांजलता की ‘रेसिपी’(recipe) से भाषा का एक नया मुहावरा बनता-सा दिखाई देता है जो आगे चलकर ‘नए गीतों और नयी कविता’ के लिए प्रयुक्त होता गया।

रचनाधाराओं के ऐसे संगम में भाषा का निरालापन मिलाते हुए एक ऐसे प्रगतिशील कवि का अवतरण होता है जिसकी अभिव्यक्ति की सुगन्ध कुछ ज़्यादा देर तक फैलती ठहरती रही है। यही वो रचनाकार है जिसका नाम है डॉ॰ महेन्द्रभटनागर। प्रगतिवादी कथ्य और निरालावादी भाषा को अपनी कविताई में विलोते हुए डॉ॰ महेंद्रभटनागर नागर्जुन और शील आदि की कविताई से पृथक स्थान बनाते दृष्टिगत होते हैं :


खण्डित पराजित ज़िन्दगी ओ! सिर उठाओ

आ गया हूँ मैं तुम्हारी जय-सदृश

सार्थक सहज विश्वास का हिमवान!


अनास्था से भरी नैराश्य-तम खोयी

थकी हत-भाग सूनी

ज़िन्दगी ओ! सिर उठाओ और देखो

द्वार दस्तक दे रहा हूँ मैं

तुम्हारे भाग्य-बल का जगमगाता सूर्य तेजोवान!


ज़िन्दगी इस तरह टूटेगी नही!

ज़िन्दगी इस तरह बिखरेगी नहीं!

('जनपक्ष-8' से)

यात्रा में डॉ॰ महेंद्रभटनागर सिर्फ़ साथ-साथ ही नहीं वरन् सम-विषम स्थितियों की क्रिया-प्रतिक्रिया को रचनात्मक सन्दर्भ देने में अग्रणी रहे हैं। 1946 में 'हंस' में इस रचनाकार की कविताओं का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। इन कविताओं से उन्हें एक प्रगतिशील कवि की पहचान मिली। उनका साहित्यिक अवदान कविता, गीत, नवगीत, मुक्तछन्द, आलोचना, एकांकी, बाल-साहित्य साक्षात्कार आदि अनेक विधाओं में समादृत है; किन्तु उनके लेखन की मूल विधा गीत / कविता ही है। डॉ॰ महेंद्रभटनागर के बारे में जानने को ज़्यादा; किन्तु पढ़ने को कम मिला मुझे। उनके आदि-आगत-अनागत को समझना दुस्साध्य है, फिर भी तटवर्ती होकर कुछ लहरों को तो गिना ही जा सकता है। सन् 1949 में ‘अन्तराल’ काव्य-संग्रह में छपी पहली मुक्त-छन्द की कविता जो काफ़ी लोकप्रिय हुई थी, यहाँ दृष्टव्य है —


री हवा!

गीत गाती आ, सनसनाती आ!

डालियॉ झकझोरती, रज को उड़ाती आ!

मोहक गंध से भर, प्राण पुरवैया!

दूर उस पर्वत-शिखा से कूदती आ जा!


ओ हवा!

उन्मादिनी यौवन भरी!

नूतन हरी इन पत्तियों को चूमती आ जा!

गुनगुनाती आ

मेघ के टुकड़े लुटाती आ!


इस तरह की मुक्त-छन्दों की लगभग पचास कविताएँ मुझे पढ़ने-समझने को मिली हैं। ये कविताएँ ‘जनवादी लेखक संघ’, वाराणसी की अनियतकालीन पत्रिका 'जनपक्ष’ के ‘कवि महेंद्रभटनागर-विशेषांक’ / अंक - 8 (जुलाई-दिसम्बर 2009) में प्रकाशित हुई हैं। विशेष तथ्य यह है कि ये कविताएँ अपनी शैली-शिल्प में मौलिक हैं तथा अपने समय से टकराती हैं और समय को सँवारती भी हैं। रूपाकार या फारमेट आदि के आग्रह-दुराग्रह में न उलझा जाए तो ये कविताएँ पारम्परिक गीतों से टूट कर ‘नये गीतों’ की कोटि में आ सकती हैं। जैसा कि नये गीतों के प्रादुर्भाव के बारे में अभी पीछे कहा चुका है; किन्तु इन्हें यहाँ नवगीत कहना उचित नहीं होगा। सन् 1948 में 'प्रतीक' का शरद-अंक (9वां अंक) अज्ञेय के संपादन में निकला था, इस अंक के नये गीत/नयी कविताएँ काफ़ी चर्चित रहे थे। उस दौर में अज्ञेय समर्थित रचनाकार रामदरश मिश्र और सर्वेश्वर आदि ने नये गीतों को ‘नयी कविता के गीत’ माना था। वहीं राजेन्द्र प्रसाद सिंह और छविनाथ मिश्र आदि ने अज्ञेय के कथन का विरोध किया तथा ऐसे गीतों को अघोषित काल के नवगीत कहा। ऐसे गीत ‘नया पथ’, 'गोधूलि' और 'नया साहित्य' आदि पत्रिकाओं में भी छप रहे थे। ध्यातव्य है कि राजेन्द्र प्रसाद सिंह द्वारा संपादित ‘गीतांगिनी’ (1958) ही एक मात्र समवेत संकलन है जिसमें ‘नवगीत’ शब्द को पहली बार परिभाषित तथा उसका तात्विक विवेचन किया गया। राजेन्द्र प्रसाद सिंह, ओम प्रभाकर, वीरेन्द्र मिश्र, धर्मवीर भारती, राम नरेश पाठक, केदारनाथ सिंह, भवानी प्रसाद मिश्र, शंभुनाथ सिंह, रवीन्द्र भ्रमर और डॉ॰ महेन्द्रभटनागर आदि कविगण प्रमुख थे जो 1948-57 के मध्य नवगीत लिख रहे थे। यह भी अविस्मरणीय है कि ऐसे नामों में निराला सर्वोपरि हैं। वास्तव में नवगीत एक आधुनिक अवधारणा है जिसका प्रादुर्भाव निराला के उन गीतों से हुआ जो 1950 के बाद लिखे गये। जैसे :

मानव जहाँ बैल, घोड़ा है / कैसा कर्मों का जोड़ा है!

1960 के बाद नवगीत की स्थापना का संघर्ष काल प्रारंभ होता है। साथ ही रचनात्मक/कथ्यात्मक स्तर पर वह अपना विकास भी करता है। उसका प्रवृत्यात्मक शैली-शिल्प एक मुक़म्मल आकार ग्रहण करता हुआ दिखता है। पूरा परिदृश्य बहस-मुबाहिसों का ऐसा दावानल था जिसमें से नवगीत कुंदन बनकर निकला। हालाँकि उसके भस्म होने की आशंकाएँ भी कम नहीं थीं। गीत-अस्मिता के लिए नवगीतकार ही नहीं वरन् प्रगतिवादी और कवितावादी कवियों ने भी नवगीत लिखे। ऐसे दौर में डॉ॰ महेंद्रभटनागर मात्र दर्शक कैसे रह सकते थे। बतौर डॉ॰ हरिश्चन्द्र वर्मा उनका प्रथम गीत-संग्रह ‘तारों के गीत’ 1941 में प्रकाशित हो चुका था। डॉ॰ हरिश्चन्द्र वर्मा द्वारा संपादित ‘महेन्द्र भटनागर के गीत (120 चयनित गेय गीत — नवगीत/जनगीतः 2001) से गुज़रते हुए मैं इस कवि को गीत-सिद्ध कवि मानता हूँ। डॉ॰ हरिश्चन्द्र वर्मा ने भी अपनी भूमिका से स्पष्ट किया है, ''महेंद्रभटनागर के गीत संवेदना और शिल्प की दृष्टि से प्रौढ़ और स्तरीय हैं।''

डॉ॰ महेंद्रभटनागर के 'समग्र' से गुज़रने का मुझे अवसर तो नहीं मिला किन्तु बटलोई में एक चावल का अनुमान-फलक तो है मेरे पास। उन्होंने आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के इस कथन को सच्चे अर्थों में सार्थक किया है कि ‘‘साहित्य के केन्द्र में तो मनुष्य ही है।’’ यह मनुष्य कितने रूपों में समाज में समादृत है, उसका हिसाब-किताब है महेन्द्रभटनागर का रचना-लोक। उनके रचना-कर्म का एक ही लक्ष्य है — आदमी का सर्वांग विकास। इस लक्ष्य के विश्लेषण में उनकी रचनाएँ क्षैतिज आकार लेती हुई इन्द्रधनुषी हो जाती हैं, अर्थात् वहाँ आदमी सिर्फ़ प्रतिरोध-धर्मीं ही नहीं क्रांति-धर्मी भी है। वह आलोकजीवी ही नही उत्सवजीवी और विजिगीषु भी है और यह सब होते हुए वह प्रेममार्गी भी है। महेंद्रभटनागर जी की कविताई में एक तरफ़ खुरदुरे आदमी का संघर्ष है तो दूसरी तरफ़ उसी की अंतः सलिला में है नीलोत्पल का खिलाव। ऐसा खिलाव जो स्वभाव से होता है ‘समानुरागी’ (अर्थात जब प्रेम में दोनों जन बराबर-बराबर तपते हों)। उनकी कविताई में मनुष्य का लोकालोक व्यापक ही नहीं, विलक्षण भी है। वास्तव में मनुष्य को जानना ही किसी साहित्यकार के लिए चुनौती है। इस चुनौती का जवाब है इसकवि का रचना-लोक । कथन की पुष्टि में यहाँ दृष्टव्य है इस कवि का आदमी — भूखे-नंगे, निराश, पीड़ित और शोषित समाज के प्रति डॉ॰ महेंद्रभटनागर कितने पर-कातर हैं, कविता स्वयं बोलती है :

दो जून

रोटी तक जुटाने में नहीं जो कामयाब,

ज़िन्दगी :

उनके लिए क्या ख़ाक होगी ख़्वाब!

कोई खूबसूरत ख़्वाब!

उनके लिए तो ज़िन्दगी :

बस, कश-म-कश का नाम,

दिन रात पिसते और खटते

हो रही उनकी निरन्तर उम्र तमाम!

('जीने के लिए', पृष्ठ: 29)

पराजित आदमी को उसके जोश, साहस और अधिकार का अर्थ समझाता है कवि :

यह नहीं मंज़िल तुम्हारी!

और चलना है तुम्हें,

और जलना है तुम्हें,

ज़िन्दगी की राह पर करना अभी संघर्ष भारी!

('महेन्द्रभटनागर के गीत', पृष्ठ: 99)

कवि दार्शनिक मुद्रा में क्षुब्ध हो अंतर- दृष्टि को पैना बनाते हुए तथा भविष्य के प्रति आस्था रखते हुए व्यवस्था पर व्यंग्य करता है :

ज़िन्दगी जब दर्द है तो

हर दर्द सहने के लिए,

मजबूर हैं हम!

(वही : पृ0 94)

इतना ही नहीं, वे अवाम में आदमी की दरिन्दगी का खुलासा भी करते हैं, क्योंकि आदमी में ही वह प्रवृत्ति होती है जो घर में बसाए गौरैया के नीड़ को नोचकर फेंक देती है, उसकी खुदगर्ज़ी की पराकाष्ठा को देख कवि कह उठता है :

॰॰॰ यह सजावट-सफ़ाई पसंद आदमी,

सभ्य और सुसंस्कृत आदमी

कैसे सहन करेगा, गौरैया!

तुम्हारा दिन-दिन बढ़ता नीड़?

वह एक दिन फेंक देगा इसे कूड़ेदान में!

('जीने के लिए', 'गौरैया' : पृ॰ 10)

इसीलिए 21वीं सदी के सन्दर्भ में डॉ॰ महेंद्रभटनागर देश, जाति, धर्म, वर्ग और वर्ण आदि से मुक्त होने के संदेश पर ज़ोर देते हैं। वे आदमी में निपट आदमी देखना चाहते हैं। इस तरह वे आदमी को एक मुक़म्मल आदमी में रूपांतरित होने का संकेत देते हैं :

''वह आख़िर कब-तलक

बर्बर मन की चुभन-शताब्दियाँ सहेगा?

तोड़ो — देशों की कृत्रिम सीमा-रेखाओं को,

तोड़ो — धर्मों की असंबद्ध, अप्रासंगिक, दकियानूस आस्थाओं को,

तोड़ो — जातियों-उपजातियों की विभाजक व्यवस्थाओं को।''

(वही: पृष्ठ: 25-26) 

*          *          *

कौन तोड़ेगा इस पहचान को?

ख़ाक करेगा इस गलीज़ जहान को?

नए इंसानो! आओ क़रीब आओ

और मानवता की ख़ातिर

धर्म-विहीन, जाति-विहीन

समाज का निर्माण करो।

देशों की भौगोलिक रेखाएँ मिटाकर!

विभिन्न भाषाओं, विभिन्न लिपियों को

मानव विवेक की उपलब्धि समझो!

नए इंसानो!

अब चुप मत रहो, तटस्थ मत रहो।

(वही, पृष्ठ: 23-24)

कवि के रचनात्मक अवदान में सर्वत्र आदमी का निपट आदमी होना ही विद्यमान है अर्थात् वे मानव समाज को उच्चादर्श की भूमि पर लाना चाहते हैं। वे दुनिया के युद्ध, फ़रेब, छल-कपट और उसके महान बने रहने के पीछे उसकी चालाकियों को समझ चुके हैं। डॉ॰ महेंद्रभटनागर मनुष्य के अंतर्जगत के कुशल चितेरे हैं।

आदमी के अंतर्जगत का दूसरा पक्ष है प्रेम, अनुराग और उसकी सदाशयता का, जो कवि के गीतों में उजागार हुआ है। वे गीत को सृष्टि की सर्वोत्तम अभिव्यक्ति मानते हैं। उनका कहना है कि गीत के मर्म को समझो — उसे गाओ, ऐसा गाओ कि पूरा जीवन ही गीतमय हो जाए यानी कि व्यक्ति सृष्टि का द्रष्टा होकर सत्य-शिव-सुन्दर को प्राप्त हो जाए :

गाओ कि जीवन — गीत बन जाए!

*          *          *          *

गाओ कि कण-कण मीत बन जाए!

*          *          *          *

गाओ, पराजय — जीत बन जाए!

*          *          *         *

गाओ कि दुख — संगीत बन जाए!

*

('महेन्द्रभटनागर के गीत' : पृष्ठ 1)

डॉ॰ महेंद्रभटनागर के गीतों का प्रेम-दर्शन आत्मिक है। वह 'सर्वभूतेषु’ को एकाकार करता है। उनके गीतों की अभिव्यक्ति में प्रकृति का मानवीकरण अद्भुत है :

मैं खिलता जाता हूँ प्रतिपल!

तरुवर की डालों पर कलियाँ,

नभ में झिलमिल तारावलियाँ,

धीरे-धीरे आ खिल जातीं, लेकर जीवन की ज्योति नवल!

(पृष्ठः 76)

खिलने में पुष्प का नैसर्गिक विकास बोधगम्य है। इस तरह वे कलियाँ, वृक्षों और कोयल आदि में प्रवेश कर जाते हैं। वास्तव में कवि की दृष्टि में प्रेम ही लक्ष्य है  — प्यार ही ज़िन्दगी है। खुरदुरे जीवन का संघर्ष अन्ततः प्रेम-पुष्प में रूपान्तरित हो जाता है :

जी रहा है आदमी, प्यार ही की चाह में!

बज रहीं हैं मौत की शहनाइयाँ

कूकती वीरान हैं अमराइयाँ,

पर, अजब विश्वास ले

हँस रहा है आदमी — आँसुओं में, आह में!

(वही, पृष्ठ: 106)

उम्र के 87 वसंत पार कर चुका यह रचनाकार हिमगिरि का उत्तुंग शिखर है। अन्तिम बात एक पाठक के रूप में — क्योंकि पाठक के रूप में ही रचनाकार से मुख़ातिब हुआ जा सकता है। रचना की पोटेंसी (potency) इस बात पर है कि वह प्रथम दृष्टि में ही पाठक में पाठ की बेचैनी को बढ़ा दे। रचना से जब पाठक गुज़रता है तो प्रतिक्रिया में उसके अंतर्मन पर अनेक दृश्य प्रकट होते जाते हैं, अनेक बिम्ब उभरते जाते हैं। यदि ऐसा है तो यही रचना और पाठक दोनों की उपलब्धि होती है। पाठक का रचना से दो तरह का रिश्ता बनता है। एक में वह तदाकार हो जाता है, अहोभव हो जाता है और दूसरे में द्वन्द्वाकार। इन दोनों रिश्तों में मैंने डॉ॰ महेंद्रभटनागर की कविताई का आस्वादन किया है। यही मैत्री-भाव है कवि, कविता और पाठक का।

प्रगतिवादी काव्येतिहास में डॉ॰ महेंद्रभटनागर का प्रमुख स्थान है। उनके साहित्य-जगत के सैकड़ों रंगों में से कुछ रंगों का विवेचन यहाँ मैंने अपनी सामर्थ्यानुसार प्रस्तुत किया। निश्चित ही, उनमें से कुछ महत्व के रंग छूट गए होंगे। कुछ निकष ऐसे भी होंगे जिनसे नए सिद्धान्तों का सूत्रपात होगा। अभी तो बस इतना ही।

==================================================वीरेन्द्र आस्तिक, एल-60 गंगा विहार, कानपुर – 208010

*

*महेंद्रभटनागर

110, बलवंतनगर, गांधी रोड, ग्वालियर — 474 002 (म॰प्र॰)

फ़ोन : 0751-4092908, M-81 097 300 48

ई-मेल : drmahendra02@gmail.com


COMMENTS

Leave a Reply

You may also like this -

Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy बिषय - तालिका