मिस्र असंतोष के बहाने/विचार मंथन

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मनोज सिंह पिरामिड यकीनन लंबे समय से विश्व संस्कृति के आकर्षण के केंद्र में रहे हैं तो आजकल संबंधित राष्ट्र मिस्र विश्व असंतोष का केंद्र ब...

मनोज सिंह
पिरामिड यकीनन लंबे समय से विश्व संस्कृति के आकर्षण के केंद्र में रहे हैं तो आजकल संबंधित राष्ट्र मिस्र विश्व असंतोष का केंद्र बिंदु बना हुआ है। अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के बीच यह चर्चा का प्रमुख विषय भी है। सबके मन में कहीं न कहीं यहां के घटनाक्रम को विस्तार में जानने की जिज्ञासा के बीच में चिंता और शंकाएं भी पनप रही होंगी। दूरसंचार क्रांति एवं मीडिया का सफल प्रयोजन है कि वर्तमान युग ने एक राष्ट्र के जनअसंतोष को अपनी आंखों से देखा। इस संदर्भ में सबके अलग-अलग दृष्टिकोण हो सकते हैं और अपने-अपने विश्लेषण, लेकिन हजारों लोगों का तहरीर चौक पर दसियों दिनों से जमा रहना किसी आश्चर्य से कम नहीं। यह समूचा घटनाक्रम अपने आप में कई तरह के सवाल पैदा करता है तो कई लोगों के लिए यह चिंतन का एक नया अध्याय बनकर उभरा है। जैसे कि, यकीन नहीं होता कि तीस साल के अपने तथाकथित सफल शासन के बावजूद होस्नी मुबारक धरातल की हकीकत को समय रहते समझ न सके हों? शासक क्या इतना अंधा, बहरा, नासमझ हो सकता है? या फिर कहीं वो अहम का शिकार तो नहीं? इन संभावनाओं को नकारा नहीं जा सकता है। विरोधियों में शामिल चरमपंथियों और कट्टरपंथियों के प्रति उठती विश्व समुदाय की शंकाएं भी यहां कम महत्वपूर्ण नहीं। इसी दौरान ब्रिटिश प्रधानमंत्री कैमरॉन का बहु-संस्कृति की विफलता पर टिप्पणी गौरतलब है। प्रजातांत्रिक व्यवस्था में जहां सब वोट की खातिर आंखें मूंद लेते हों, इतनी सीधी व सटीक टिप्पणी को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। बहरहाल, मिस्र के संदर्भ में पश्चिमी देशों के अपने-अपने सामरिक महत्व और नयी परिस्थितियों में उपजते नये समीरकण! विश्व राजनीति अपने हित में कितनी जल्दी अपने वक्तव्य और कूटनीति को बदल सकती है, देखकर हैरानी होनी चाहिए। मुबारक के बाद कौन? अराजक स्थिति को लेकर चिंताएं, साथ ही कुछेक उग्रवादी संगठनों के शामिल होने पर संदेह व्यक्त किया जाना? यह प्रशासन द्वारा गुमराह करने की चाल भी तो हो सकती है? महिलाओं की नयी शासन व्यवस्था में दशा और दिशा? इस पर भी तरह-तरह की अटकलें लगायी जा रही हैं। और यह निराधार भी नहीं। इन तमाम मुद्दों पर तर्क-वितर्क, लंबे-लंबे विश्लेषण, अपने-अपने मतों और मतांतर पर बहस के बीच में हम यह क्यूं भूल जाते हैं कि लाखों लोगों की भीड़ इतने दिनों तक सब कुछ छोड़कर यूं ही चौराहे पर अपना सर्वस्व न्योछावर करने के लिए नहीं खड़ी होगी। यह यकीनन स्वाभिमान पर लगी चोट और असंतोष की आग है जो दो-चार दिन पुरानी नहीं हो सकती। आम आदमी तो वैसे भी अपने दैनिक जिम्मेदारियों को निभाने और जीवन को चलाने में इतना व्यस्त और परेशान रहता है कि इतने शक्तिशाली सुगठित व निष्ठुर शासन व्यवस्था के सामने खड़े होने की सोच भी नहीं सकता। उसका असंतोष तो बस तरह-तरह से व्यक्तिगत जीवन में घर-परिवार-दोस्तों के बीच प्रकट होता रहता है। और अंत में वह एक दिन समय के हाथों पराजित होकर दुनिया से कूच कर जाता है। गरीब तो आमतौर पर शरीर से, मानसिक, सामाजिक और बौद्धिक कुटिलता के हर रूप में कमजोर होता है। मगर जब उसकी भावनाओं के साथ खिलवाड़ होता है तब उसकी यही कमजोरी ताकत बन जाती है और वह एक बड़ी संख्या के समूह में इकट्ठा होकर सड़कों पर अड़कर खड़ा हो जाता है। इसमें विरोधी पार्टियों की राजनैतिक सक्रियता व धर्म का प्रभावी रोल हो सकता है मगर पूरी तरह से यह उनसे ही प्रभावित और संचालित हो, संभव नहीं। इसे ही जनक्रांति कहते हैं। सैकड़ों दिलों की चिंगारी आग बनकर सब कुछ परिवर्तित कर देना चाहती है। ये फिर तत्कालीन व्यवस्था को जलाकर राख कर देती है। शासन तंत्र को उखाड़कर फेंक देती है। ऊंची-ऊंची मजबूत दीवारों के पीछे छिपे राजा-महाराजाओं-तानाशाहों के सुंदर महल भी नेस्तनाबूद कर दिये जाते हैं। सेना के जवानों की तलवार भी अमूमन इस ज्वालामुखी के सामने झुककर नतमस्तक हो जाती है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि जनक्रांति में पुलिस और फौज ने अपनी अति सक्रियता कम दिखाई। और वो मौके की नजाकत को समझकर आमतौर पर चुप और रोड के किनारे खड़े होने पर ही अपनी भलाई समझती हैं। वरना वो जानती है कि इसकी रफ्तार के आगे टैंक और मिसाइलें भी उड़ जाएंगी। मगर ये जनक्रांतियां होती बहुत मुश्किल से हैं। चिंगारी सुलगकर आग बनने में लंबा समय लेती है। पता नहीं शासन व्यवस्था इस दौरान समय रहते सचेत क्यों नहीं हो पाती? शायद उन्हें अंत तक जनता के मूर्ख और कमजोर होने का विश्वास बना रहता है।
सवाल यहां यह भी उठता है कि दुनिया में इतनी क्रांतियों के बाद क्या हुआ? क्या आम जनता को उससे राहत मिली? तमाम तरह की क्रांतियों के अध्ययन के बाद यह दावे से तो नहीं कहा जा सकता लेकिन सत्य है कि कुछ समय के पश्चात आम जनता का भ्रम एक बार फिर टूटने लगता है। नयी शासन व्यवस्था भी अमूमन वही गलतियां दोहराती हैं। यह एक सामान्य ऐतिहासिक सच है कि शासन व्यवस्थाएं आम आदमी के लिए उस हद तक नहीं सोचती जिसके लिए वे जवाबदार हैं। आखिरकार ऐसा क्यों? जवाब में इसे शासन व्यवस्था की मानसिकता के रूप में देखा जा सकता हैं। इसे उसके स्वार्थ से उपजा एक तरह का अवगुण भी कहा जा सकता है। पता नहीं इतिहास के किस दौर की प्रशंसा को सत्य माना जाये कि अमुक-अमुक राजा के शासनकाल में वास्तविकता में अमन-चैन व सुख-शांति थी। जब आज की घटनाओं का भी पूरी तरह से सच सामने आना मुश्किल हो जाता है तो अति प्राचीन काल के दरबारी इतिहासकार की चाटुकारिता या उसके एकपक्षीय दृष्टिकोण से इनकार नहीं किया जा सकता। तो क्या सभी शासन व्यवस्थाएं एक समान होती हैं? कह सकते हैं। बहुत हद तक। तभी शासन व्यवस्था के बदल जाने पर भी मात्र शासक बदलते हैं, आमजन के लिए तो एक असंतोष से निकलकर दूसरे असंतोष की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है। तो क्या यह मान लिया जाये कि कोई भी शासन व्यवस्था निर्दोष नहीं? शायद। तभी तो हर व्यवस्था के विरोध में असंतोष की चिंगारी, क्रांति तक इतिहास के पन्नों में पहुंचती रही है। यहां प्रजातांत्रिक व्यवस्था को झूठा गरूर नहीं पाल लेना चाहिए। इनके घरों के भीतर भी असंतोष की आग सुलगने लगी है। जबकि ये अपने जीवन के प्रारंभिक दिनों में ही हैं। यहां हाल-फिलहाल और कुछ हो न हो अवाम को इस बात का सुकून रहता है कि उसकी सत्ता में भागीदारी है। मगर क्या यह सच में जमीनी हकीकत है? लगता तो नहीं। और यही प्रजातांत्रिक व्यवस्था के लिए बड़ी मुश्किल का कारण बन रहा है।
वर्तमानकाल इतिहास से कभी भी सीख नहीं लेता। तभी शायद नया इतिहास रचता है। दुनिया की तमाम प्रजातांत्रिक शासन व्यवस्थाएं दूसरों पर जितना दोषारोपण करें मगर अंदर ही अंदर बीमारी से सड़ कर उत्पन्न होने वाली बदबू के चारों ओर फैलने को नजरअंदाज नहीं कर सकतीं। मिस्र भी तो स्वयं को लोकतांत्रिक व्यवस्था से जोड़ने का (नाटक ही सही) ढोंग करता रहा है। अन्य स्थानों पर भी जनता की भागीदारी या तो कमजोर रही है या फिर हाशिये पर है। प्रजातंत्र के खिलाड़ियों ने इसे भी खेल ही बना दिया है। ऐसे में जनता का आक्रोश दुगुना हो जाता है। जब वो देखता है कि अपने ही द्वारा चुने हुए लोग शासक बनकर उसे ही लूट रहे हैं तो  तिलमिलाकर रह जाता है। और जब यह सिलसिला सालों साल हर चुनाव की प्रक्रिया के दौरान गाहे-बगाहे किसी न किसी तरह से प्रकट हो जाता है तो उसका असंतोष क्रोध में परिवर्तित होने लगता है। राजा-महाराजाओं-तानाशाहों से तो यूं भी उम्मीद नहीं होती, और मौका मिलने पर  क्रांति करके अपमान का बदला लेता रहा है, मगर यहां क्या करें? यहां भी सत्ता परिवर्तन से सिर्फ चेहरे बदल जाते हैं, और कई बार तो वो भी नहीं। यह सब देख पहले तो वो हतप्रभ होता है। और फिर अंत में अपने ही चुने हुए के विरोध में खड़ा होने लगता है। आक्रोश से भरा हुआ। तहरीर चौक का प्रदर्शन जन-आक्रोश का एक उदाहरण मात्र है। इन सब प्रतिक्रियाओं को आंदोलित करने में बुद्धिजीवियों, मीडिया व अंतर्राष्ट्रीय समुदाय का सक्रिय योगदान हो सकता है और इसे सकारात्मक रूप में लिया जाना चाहिए, और लिया भी जाता है, मगर ये अमूमन स्थिति को और अधिक जटिल बनाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ते। आम आदमी की जरूरतें बड़ी छोटी होती हैं और समझ स्पष्ट तो संयम और संतोष भी भरपूर होता है। वो तो छोटी-छोटी बातों से ही संतुष्ट हो जाता है। मगर शासक अपने हितों को साधने के लिए एक तरफ तो आमजन को नये-नये दिवा-स्वप्न दिखाते हैं, उन्हें अपने पक्ष में करने के लिए बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, परदे के पीछे से अपने तथाकथित बुद्धिजीवियों के द्वारा उन्हें मानसिक रूप से तैयार करते हैं और फिर अपना हित साधते हुए सबको मूर्ख बनाते हैं। नये सपने दिखाने और उसे कुछ हद तक पूरा करने फिर दिखाने फिर करने की प्रक्रिया के द्वारा वे अपनी शासन व्यवस्थाएं बनाये रखने में प्रयासरत रहते हैं। इसमें बहुत हद तक सफल भी होते हैं। मगर फिर कभी-कभी गाड़ी अटक भी जाती है। आम जनता की मूलभूत जरूरतों व स्वाभिमान से खिलवाड़ होने पर असंतोष अचानक आक्रोश बनकर भड़क उठता है।
पता नहीं मिस्र के आंदोलनरत आमजन प्रजातंत्र की कमजोरियों से वाकिफ हैं या नहीं? मगर असंतोष से भरी उनकी निगाहें इस वक्त व्यवस्था के बदले जाने के लिए आतुर नजर आ रही हैं। उसके पास गंवाने के लिए कुछ है भी तो नहीं। उसे भविष्य की अनिश्चितता से क्या? जब वर्तमान अंधकारमय हो तो भविष्य में उजाले की उम्मीद तो की ही जा सकती है। और फिर उसने परिपक्वता का प्रदर्शन भी किया है। लाखों की भीड़ ने संयम दिखाया है और वो अपने बीच में से नेतृत्व के प्रति आश्वस्त है। इस तरह से कह सकते हैं कि मानवीय सभ्यता ने एक और सफर तय किया है। यह दीगर बात है कि अभी भी शासन व्यवस्थाएं आम आदमी के परिप्रेक्ष्य में सफल नहीं हो पा रही। चूंकि वो मूल रूप से असमानता के सिद्धांत पर काम करती हैं। आखिरकार शासक और शासित, ये दो वर्ग हर तंत्र पैदा करता है। अभी मानव जाति को विकास मार्ग पर ऐसी व्यवस्था कायम करने में वक्त लगेगा जिसमें कोई न तो शासक हो न ही शासित। तब तक न जाने कितनी क्रांतियां और होंगी। अब शासक वर्ग इस आदर्श व्यवस्था को कभी होने देगा या नहीं, यह उसकी चालाकी पर निर्भर करता है। लेकिन फिर वो समय-समय पर क्रांति की आग में जलने के लिए भी तैयार रहे।
यहां हम यह क्यों भूल जाते हैं कि मिस्र के पिरामिड में सो रही ममी'स भी तो आखिरकार उस दौर के शासक के अमरत्व प्राप्त करने की अभिलाषा का प्रतीक ही है जो आज के शासकों की आत्मा में भी रची-बसी हैं।
 
 

यह लेख मनोज सिंह द्वारा लिखा गया है.मनोजसिंह ,कवि ,कहानीकार ,उपन्यासकार एवं स्तंभकार के रूप में प्रसिद्ध है .आपकी'चंद्रिकोत्त्सव ,बंधन ,कशमकश और 'व्यक्तित्व का प्रभाव' आदि पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है.

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