सांस्कृतिक साम्राज्यवाद - विचार मंथन

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मानवीय विकासक्रम के पन्नों को पलटकर देखें तो मनुष्य के रहन-सहन, खान-पान, भाषा-लेखन में समय के साथ-साथ निरंतर बदलाव आता चला गया। यह एक सतत प्...

मानवीय विकासक्रम के पन्नों को पलटकर देखें तो मनुष्य के रहन-सहन, खान-पान, भाषा-लेखन में समय के साथ-साथ निरंतर बदलाव आता चला गया। यह एक सतत प्रक्रिया है। यह दीगर बात है कि हर काल खंड में बदलाव की गति और तीव्रता अलग-अलग रही है। इससे हटकर देखने वाली बात यह है कि क्या उसकी सोच व मानसिकता में भी कोई बड़ा मूलभूत अंतर आया है? ठीक इसी तरह क्या राष्ट्रों व समाज की विचारधाराओं में कोई फर्क आया है? विशेषकर साम्राज्यवाद के मुद्दे पर। क्या राष्ट्रों के बीच परस्पर प्रतिस्पर्धा और उनकी महत्चाकांक्षाओं में कोई अंतर दिखाई देता है? विज्ञान के बढ़ते कदम के साथ-साथ मानवीय विकास को भी सकारात्मक रूप में लेते हुए उसके बौद्धिक प्रौढ़ता की बात जरूर की जाती है, मगर ऐसा है नहीं। उसी तरह राष्ट्रों की सोच में कोई खास परिवर्तन आया हो, लगता नहीं। आज भी राष्ट्रों के बीच प्रगाढ़ संबंध हैं तो जबरदस्त वैमनस्यता भी है। ठीक आदिकाल की तरह। बस रिश्तों का ऊपरी आडम्बर आधुनिक चमकदमक को ओढ़े दिखावे की नौटंकी बन गया है। इस बीच उलटे सैन्य शक्तियां बेइंतहा जरूर बढ़ गयी हैं। विश्वपटल से स्वयं का नामोनिशान मिटाने में सक्षम। इस शक्ति पर मनुष्य गौरवान्वित भी है और भयभीत भी, इसलिए भ्रमित है। इसके बावजूद आज राष्ट्र के लिए व्यवसायिक हित सर्वोपरि हैं और दुनिया उसके लिए एक बाजार में तबदील हो चुकी है। साम्राज्यवाद इस बाजार में भेष बदलकर घूम रहा है। दुकानदारी की तरह राष्ट्रों के बीच एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ तीव्र हुई है। दोस्त-राष्ट्रों के बीच व्यापारिक संबंध व सैनिक गठजोड़, खेमेबाजी और शत्रु राष्ट्र के लिए राजनीति, आर्थिक व सैनिक षड्यंत्र, बाकी सब वही है। दुश्मन का दुश्मन आज भी दोस्त ही होता है। अर्थात, तो क्या कुछ खास नहीं बदला? शायद नहीं। मनुष्य हो या राष्ट्र, उसका बाह्य रूप बदला है मगर आंतरिक स्वरूप वही है। कह सकते हैं कि पैकिंग बदली है बस। हां, अब षड्यंत्र कहें या कूटनीति, अदृश्य और अप्रत्यक्ष होते हुए भी अधिक सशक्त, प्रभावशाली और पेचीदी हुई है। जिसमें सांस्कृतिक साम्राज्यवाद सबसे जटिल है। 
जहां तक इतिहास पढ़ा और समझा जा सकता है, ज्ञात होता है कि राष्ट्र की अवधारणा के पहले कबीलों में भी संघर्ष हुआ करते थे। युद्ध में जीत-हार भी होती थी। और इस तरह शासित और शासक राष्ट्र की उत्पत्ति व स्वरूप परिभाषित हुई थी। हां, इन सब के बीच सांस्कृतिक लेन-देन भी खूब होता था। यह सच है कि विज्ञान की उन्नति के साथ ही सूचना के आदान-प्रदान को गति प्राप्त हुई है। संचार माध्यम बढ़ गए हैं। कहने वाले कहते हैं कि अब गुलाम राष्ट्र की संभावनाएं कम हो चुकी हैं। तो क्या यह मान लिया जाये कि मानवीय प्रवृत्ति में इस बिंदु पर परिवर्तन आया है? अर्थात राष्ट्र के पीछे खड़े मनुष्य की साम्राज्यवादी प्रवृत्ति समाप्त हुई है? नहीं, कदापि नहीं।
पूर्व में शासक-राष्ट्र शासित-प्रदेशों में हुकूमत करने के दौरान अपनी संस्कृति और भाषा जाने-अनजाने ही स्थानीय लोगों पर थोप देते थे। शासक की संस्कृति शासित की सभ्यता में अतिक्रमण करने लगती थी। यूं तो यह एक ही दिशा में नहीं होता था। दोनों ओर की संभावनाएं होती थीं। मगर इस आदान-प्रदान में प्रभुत्व शासक का ही होता था। दुनिया के तमाम शासित प्रदेशों के स्वतंत्र हो जाने के बाद भी शासक वर्ग की छाप को आराम से अनुभव ही नहीं देखा भी जा सकता है। यह दीगर बात है कि सांस्कृतिक सम्मिश्रण इतनी धीमी गति से होता कि ये आपस में बेहतरीन ढंग से घुलमिल जातीं। और फिर कुछ वर्षों के बाद मूल का पहचान पाना भी मुश्किल होता। इसे विज्ञान की परिभाषा में यौगिक (कम्पाउंड) प्रक्रिया कह सकते हैं, जिसमें मूल तत्व के गुण परिवर्तित हो जाते हैं। भारतीय जीवन में भी ऐसे सैकड़ों उदाहरण मिल जाएंगे, जिन्हें मुगलों की संस्कृति से प्रभावित माना जा सकता है। वे आज हमारे दैनिक जीवन के हिस्सा बन चुके हैं। उन्हें अलग रखकर देख पाना संभव नहीं। यह भी सच है कि सांस्कृतिक आदान-प्रदान के बिना हुकूमत सरल, सहज और लोकप्रिय ढंग से नहीं चलायी जा सकती थीं। गंगा-जमुना संस्कृति इसका एक जीता जागता उदाहरण है। जहां स्थानीय प्रशासन की सहूलियत के लिए अरबी-फारसी और हिन्दुस्तान की स्थानीय बोलियों के मिश्रण से हिन्दी और उर्दू का जन्म और विकास हुआ। समरसता के बिना सफल हुकूमत संभव नहीं। दूसरी तरफ वे शासक जो शासित के प्रदेश में स्थायी रूप से बसने के उद्देश्य से नहीं आये, उनका प्रभाव शासित प्रदेश पर अधिक पड़ा। और यह उनके जाने के बाद भी बना रहा। गोवा में पुर्तगाली संस्कृति और मांट्रियल कनाडा में फ्रांस जीवनशैली आज भी इसका उदाहरण बन सकता है। जबकि शासक वापस जाते समय बस यादों का खुमार साथ ले गए। अर्थात संस्कृतियां तलवार के पीछे-पीछे चलती थीं अौर जीती गई हुकूमतों में घुसकर फैल जाया करती थीं। धर्म परिवर्तन इसका एक सशक्त उदाहरण बन सकता है। इस प्रक्रिया से सलतनत में साम्राज्यवाद की जड़ें मजबूत हुआ करती थीं। 
आज के तथाकथित पढ़े-लिखे के दौर में जहां सीधे-सीधे शासक और शासित को नहीं पहचाना जा सकता, मगर मानवीय महत्वाकांक्षाएं और राष्ट्रीय साम्राज्यवाद खत्म हो गया है, इसे भी स्वीकार नहीं किया जा सकता है। बल्कि एक नये तरह का साम्राज्यवाद नये युग की पहचान बनकर उभरा है। जहां संस्कृति हुकूमत करने के लिए पहले से पहुंची हुई होती है। एक तरह से कह सकते हैं कि तलवार का स्थान संस्कृति ने ले लिया है। यह उपनिवेश के प्रसार की नयी विधा है।
गुलाम राष्ट्रों पर नजर डालें तो शासित जनता शारीरिक रूप से गुलाम जरूर हो जाती थीं मगर, चाहे कोई माने न माने, मानसिक रूप से स्वतंत्र ही होती थीं। भावनाओं का प्रदर्शन चाहे फिर खुलकर न भी करते हों, मगर उन्हें किसी और की हुकूमत मन ही मन स्वीकार नहीं होती थीं। आज परिस्थितियां ठीक उलटी प्रतीत होती हैं। सांस्कृतिक साम्राज्यवाद पहले वैचारिक क्षेत्र में आक्रमण करता है। और धीरे से दिलोदिमाग पर छा जाता है। इसका वार अधिक गहरा और प्रभावशाली होता है। यह दिमाग पर हुकूमत करता है। वर्तमान के भारतीय परिदृश्य में पश्चिमी सभ्यता के प्रभाव को इस रूप में लिया जा सकता है। आज हमारी युवा पीढ़ी पश्चिमी संस्कृति के पूरी तरह गिरफ्त में है। यह एक तरह से सांस्कृतिक गुलामी का दौर है। इसमें एक खास विशेषता है। यहां किसी भी प्रकार का प्रतिरोध नहीं, ऐसे में फिर प्रतिक्रिया और फिर क्रांति की कोई गुंजाइश नहीं। जब आपका मन-मस्तिष्क किसी और के पूरी तरह से नियंत्रण में है, जब आप स्वतंत्र रूप से सोच ही नहीं सकते तो फिर अपने अच्छे-बुरे का ज्ञान कहां संभव है। आप तो उतना ही सोच पा रहे हैं जितना सोचने के लिए कहा जा रहा है। ऐसे मानसिक गुलाम के द्वारा स्वतंत्रता की बातें करना बेमानी लगती है। 
संस्कृति जीवन में रस और रंग भरती है। इसका नशा सिर चढ़कर बोलता है। यह अपने आकर्षण में सबको बांध लेती है। समूह में समरूपता ला देती है। यह दूसरे को अपने पास आने के लिए ललचाती है। जीतने वाला तो फिर हमेशा से भीड़ को अपनी ओर सम्मोहित करता है। शायद यही कारण है कि विदेशी शासन के आगमन पर उनकी रंगीन संस्कृति की चमक से आम जनता को आकर्षित होने से बचाने के लिए बड़े-बुजुर्गों ने समय-समय पर स्थानीय संस्कृति में परिवर्तन किये। मगर इसमें देशी परम्पराओं का ध्यान रखा गया था। आज ऐसा नहीं है। पैसे और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं ने संस्कृति को बेच दिया है। सिनेमाई संस्कृति ने पारंपरिक जीवन को विस्थापित कर दिया है। सिनेमा कभी यथार्थ नहीं होता तभी तो आज सब कुछ हवा में है। सांस्कृतिक शून्यता पैदा हो गयी है। डालर-दर्शकों के लिए परोसे गए मनोरंजन ने हिन्दुस्तान की अवाम को कब धीरे से विदेश का सांस्कृतिक गुलाम बना दिया, पता ही नहीं चला। इन मेकअप की परतों में छिपे नौटंकीबाजों को कौन समझाए? उन्होंने अपने संगीत-गीत, कहानी व कलाकार के चरित्रों से दर्शकों को वो जहर पिलाया कि रेगिस्तान की बंजर जमीन पर कई सदियों तक हरियाली की कोई उम्मीद नहीं। आज हिंदुस्तान की युवा पीढ़ी से इस विषय पर बात करके देख लें, कुछ इस तरह से मुस्कुरा कर टाल दिया जाएगा कि आपने शायद कोई मूर्खतापूर्ण सवाल कर दिया है। चाहे जितना जोर लगा लो तब भी इस पर बात करना जरूरी नहीं समझेंगे। अंत में बात करने को राजी भी हो गए तो कुछ ऐसे तर्क देंगे कि आप अवाक्‌ रह जाएंगे। वे एकतरफा लगातार बोलकर आपकी सुनेंगे ही नहीं। कान से सुनी बात जब मस्तिष्क के अंदर ही नहीं जाएगी तो दिमाग पर असर कहां करेगी। वे निर्णायक स्वर में आपकी बात को दकियानूसी भी कह सकते हैं। आपको पिछड़ा और बेवकूफ भी करार दिया जा सकता है। आधुनिक समाज में विकास की बात करना आजकल फैशन हो गया है, मगर यह जमीनी स्तर तक कैसे पहुंचेगा, इसका किसी को पता नहीं। विश्वबंधुत्व की बात भी की जाती है मगर क्या यह यथार्थ में सच है? कदापि नहीं। 
मनुष्य अपनी मूल प्रवृत्ति से कभी बाज नहीं आ सकता। वह अपनी प्रभुत्व वाली विचारधारा से मुक्त नहीं हो सकता। वह अपनी समस्त महत्वाकांक्षाओं को समाप्त कर दे, संभव नहीं। और अंत में सबसे बड़ा प्राकृतिक सच तो यह है कि हर व्यक्ति अपने और अपने समूह की भलाई चाहता है, उन्नति चाहता है। और यह स्वाभाविक भी है। यह तभी संभव है जब वह दूसरों से आगे रहे। दूसरों को नियंत्रण में रखे। दूसरों को प्रभावित करता रहे। किसी एक का साधन-संपन्न होना तभी संभव है जब दूसरे का हक मारा जाए। शासक और शासित की परिभाषा के मूल में भी यही सिद्धांत है। ऐसे में व्यक्तिगत और समूह के संघर्ष कभी समाप्त नहीं हो सकते। जीवन संघर्ष का नाम है। अस्तित्व की रक्षा के लिए तमाम उम्र संघर्ष करना पड़ता है। जो जीतेगा वह बचेगा, और जो बचेगा वह जियेगा। ऐसे में विकास की आपाधापी के बीच विश्वबंधुत्व की कामना एक आदर्श तो हो सकती है मगर व्यवहारिक नहीं। इस हर पल के संघर्ष में विजय के लिए ही व्यक्ति विशेष को अपने समूह के साथ अपनी पहचान के अंदर छिपी शक्ति बचाए रखनी होगी। इस शक्ति में भौतिक, आध्यात्मिक, शारीरिक, आर्थिक, सांस्कृतिक हर रूप का समावेश है। और इन सबमें प्रमुख है वैचारिक शक्ति। आज के आधुनिक युग में वैसे भी सारा खेल दिमाग का हो चुका है। ऐसे में अपने मन-मस्तिष्क को संक्रमण से बचाये रखना सर्वाधिक आवश्यक है। वरना मन के हारे हार है मन के जीते जीत। सांस्कृतिक रूप से गुलाम राष्ट्र पर किसी और तरह से हुकूमत करने की कोई आवश्यकता नहीं। हमें इस बात को अति शीघ्र समझना होगा। वरना आने वाली कई पीढ़ियां इस गुलामी से निकल नहीं पायेंगी। और अपने अस्तित्व की पहचान के लिए जल बिन मछली की तरह छटपटाती रहेंगी।
 
 

यह लेख मनोज सिंह द्वारा लिखा गया है.मनोजसिंह ,कवि ,कहानीकार ,उपन्यासकार एवं स्तंभकार के रूप में प्रसिद्ध है .आपकी'चंद्रिकोत्त्सव ,बंधन ,कशमकश और 'व्यक्तित्व का प्रभाव' आदि पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है

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