मोटर के छींटे - प्रेमचंद की कहानी

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क्या नाम कि प्रातःकाल स्नान-पूजा से निपट, तिलक लगा, पीतांबर पहन, खड़ाऊँ पाँव में डाल, बगल में पत्रा दबा, हाथ में मोटा सा शत्रु-मस्तक-भंजन ल...

क्या नाम कि प्रातःकाल स्नान-पूजा से निपट, तिलक लगा, पीतांबर पहन, खड़ाऊँ पाँव में डाल, बगल में पत्रा दबा, हाथ में मोटा सा शत्रु-मस्तक-भंजन ले एक जजमान के घर चला। विवाह की साइत विचारनी थी। कम से कम एक कलदार का डौल था। जलपान ऊपर से। और मेरा जलपान मालूली जलपान नहीं है। बाबुओं की तो मुझे निमन्त्रित करने की हिम्मत ही नहीं पड़ती। उनका महीने भर का नाश्ता केरा एक दिन का जलपान है। इस विषय में तो हम सेठ साहूकारों के कायल हैं। ऐसा खिलाते हैं, ऐसा खिलाते हैं, और इतने खुले मन से कि चोला आनन्दित हो उठता है। जजमान का दिल देख कर ही मैं उन का निमन्त्रण स्वीकार करता हूँ। खिलाते समय किसी ने रोनी सूरत बनाई और मेरी क्षुधा गायब हुई। रोकर किसी ने खिलाया तो क्या? ऐसा भोजन कम से कम मुझे नहीं पचता। जजमान ऐसा चाहिए कि ललकारता जाय -- लो शास्त्रीजी, एक बालूशाही और मैं कहता जाऊँ -- नहीं जजमान अब नहीं!

रात खूब वर्षा हुई थी, सड़क पर जगह जगह पानी जमा था। मैं अपने विचारों में मगन चलता चला जाता था कि एक मोटर छप छप करती हुई निकल गई। मुँह पर छींटे पड़े। जो देखता हूँ, तो धोती पर मानो किसी ने कीचड़ घोलकर डाल दिया हो। कपड़े भ्रष्ट हुए वह अलग, देह भ्रष्ट हुई वह अलग, आर्थिक क्षति हुई वह अलग। अगर मोटर वालों को पकड़ पाता, तो ऐसी मरम्मत करता कि वे भी याद करते। मन मसोस कर रह गया। इस वेश में जजमान के घर तो नहीं जा सकता था, अपना घर भी मील भर से कम न था। फिर आने जाने वाले सब मेरी ओर देख कर तालियाँ बजा रहे थे। ऐसी दुर्गति मेरी कभी नहीं हुई थी। अब क्या करोगे मन? घर जाओगे तो पंडिताइन क्या कहेंगी?

मैं ने चटपट अपने कर्तव्य का निश्चय कर लिया। इधर-उधर से दस बारह पत्थर के टुकड़े बटोर लियो और दूसरी मोटर की राह देखने लगा। ब्रह्मतेज सिर पर चढ़ बैठा! अभी दस मिनट भी न गुजरे होंगे कि एक मोटर आती दिखाई दी ! ओहो वही मोटर थी। शायद स्वामी को स्टेशन से लेकर लौट रही थी। ज्योंही समीप आयी, मैंने एक पत्थर चलाया, भरपूर जोर लगाकर चलाया। साहब की टोपी उड़कर सड़क के उस बाजू पर गिरी। मोटर की चाल धीमी हुई। मैंने दूसरा फैर किया। खिड़की के शीशे चूर चूर हो गये और एक टुकड़ा साहब बहादुर के गाल पर भी लगा। खून बहने लगा। मोटर रुकी और साहब उतरकर मेरी तरफ आये और घूँसा तान कर बोले -- सूअर हम तुम को पुलिस में देगा। इतना सुनना था कि मैने पोथी पत्रा जमीन पर फेंका साहब की कमर पकड़कर अड़ंगी लगायी, को कीचड़ में भद से गिरे। मैने चट सवारी गाँठी और गरदन पर एक पच्चीस रद्दे ताबड़तोड़ जमाये कि साहब चौंधिया गये। इतने में उनकी पत्नी जी उतर आयीं। ऊँची एड़ी का जूता, रेशमी साड़ी, गालों पर पाउडर, ओठों पर रंग, भवों पर स्याही, मुझे छाते से गोदने लगीं। मैंने साहब को छोड़ा और डंडा संभालता हुआ बोला -- देवी जी, आप मरदों के बीच में न पड़ें, कहीं चोट-चपेट आ जाय तो मुझे दुःख होगा।

साहब ने अवसर पाया तो सम्हल कर उठे और अपने बूटदार पैरों से मुझे एक ठोकर जमायी। मेरे घुटने में बड़ी चोट लगी। मैने बौखला कर डंडा उठा लिया। और साहब के पाँव में जमा दिया। वह कटे पेड़ की तरह गिरे। मेम साहब छतरी तान कर दौड़ीं। मैने धीरे से उनकी छतरी छीन कर फेंक दी। ड्राइवर अभी तक बैठा था। अब वह भी उतरा छड़ी लेकर मुझ पर पिल पड़ा। मैने एक डंडा उसके भी जमाया।, लोट गया। पचासों आदमी तमाशा देखने जमा हो गये। साहब भूमि पर पड़े पड़े बोले -- रेस्केल, हम तुम को पुलिस में देगा।

मैने फिर डंडा सँभाला और चाहता था कि खोपड़ा पर जमाऊँ कि साहब ने हाथ जोड़ कर कहा -- नहीं-नहीं, बाबा, हम पुलिस में नहीं जायगा, माफी दो।

मैने कहा -- हाँ पुलिस का नाम न लेना, नहीं तो यहीं खोपड़ी रंग दूँगा। बहुत होगा छः महीने की सज़ा हो जाएगी, मगर तुम्हारी आदत छुड़ा दूँगा। मोटर चलाते हो तो छींटे उड़ाते चलते हो, मारे घमंड के अन्धे हो जाते हो। सामने या बगल में कौन जा रहा है, इस का कुछ ध्यान ही नहीं रखते।

एक दर्शक ने आलोचना की -- अरे महाराज, मोटर वाले जान-बूझ कर छींटे उड़ाते हैं और जब आदमी लथपथ हो जाता है, तो सब उसका तमाशा देखते हैं। और खूब हँसते हैं। आप ने बड़ा अच्छा किया कि एक को ठीक कर दिया।

मैं ने साहब को ललकार कर कहा -- सुनता है कुछ, जनता क्या कहती है। साहब ने उस आदमी की ओर लाल-लाल आँखों से देख कर कहा -- तुम झूठ बोलता है, बिल्कुल झूठ बोलता है।

मैंने डाँटा -- अभी तुम्हारी हेकड़ी कम नहीं हुई, आऊँ फिर और दूँ एक सौंटा कस के?

साहब ने घिघियाकर कहा -- अरे नहीं बाबा, सच बोलता है, सच बोलता है। अब तो खुश हुआ।

दूसरा दर्शक बोला -- अभी जो चाहें कह दें, लेकिन ज्योंही गाड़ी पर बैठे, फिर वही हरकत शुरू कर देंगे। गाड़ी पर बैठते ही सब अपने को नवाब का नाती समझने लगते हैं।

दूसरे महाशय बोले -- इस से कहिए थूक कर चाटे।

तीसरे सज्जन ने कहा -- नहीं, कान पकड़कर उठाइए-बिठाइए।

चौथा बोला -- अरे ड्राइवर को भी। ये सब और बदमाश होते हैं। मालदार आदमी घमण्ड करे, तो एक बात हे, तुम किस बात पर अकड़ते हो। चक्कर हाथ में लिया और आँखों पर पर्दा पड़ा।

मैने यह प्रस्ताव स्वीकार किया। ड्राइवर और मालिक दोनों ही को कान पकड़ कर उठाना बैठाना चाहिए और मेम साहब गिनें। सुनो मेम साहब तुम को गिनना होगा। पूरी सौ बैठकें। एक भी कम नहीं, ज्यादा जितनी हो जाएँ।

दो आदमियों ने साहब का हाथ पकड़कर उठाया, दो ने ड्राइवर महोदय का। ड्राइवर बेचारे की टाँग में चोट थ, फिर भी वह बैठकें लगाने लगा। साहब की अकड़ अभी काफी थी। आप लेट गए और ऊलजलूल बकने लगे। मैं उस समय रुद्र बना हुआ था। दिल में ठान लिया था कि इस से बिना सौ बैठकें लगाए न छोडूँगा। चार आदमियों को हुक्म दिया कि गाड़ी को ढकेल कर सड़क के नीचे गिरा दो।

हुक्म की देर थी। चार की जगह पचास आदमी लिपट गए और गाड़ी को ढकेलने लगे। वह सड़क बहुत ऊँची थी। दोनों के तरफ की ज़मीन नीची। गाड़ी नीचे गिरती और टूट-टाटकर ढेर हो जाती। गाड़ी सड़क के किनारे तक पहुँच चुकी थी, कि साहब काँख कर उठ खड़े हुए और बोले -- बाबा, गाड़ी को मत तोड़ो, हम उठे-बैठेगा।

मैंने आदमियो को अलग हट जाने का हुक्म दिया मगर सबों को एक दिल्लगी मिल गई थी। किसी ने मेरी ओर ध्यान न दिया। लेकिन जब मैं डंडा लेकर उनकी ओर दौड़ा तब सब गाड़ी छोड़कर भागे और साहब ने आँखें बन्द करके बैठकें लगानी शुरू कीं।

मैने दस बैठकों के बाद मेम साहब से पूछा -- कितनी बैठकें हुईं?
मेम साहब ने रोब से जवाब दिया -- हम नहीं गिनता।
'तो इस तरह साहब दिन-भर काँखते रहेंगे और मैं न छोड़ूँगा। अगर उनको कुशल से घर ले जाना चाहती हो, तो बैठकें गिन दो। मैं उन को रिहा कर दूँगा।'

साहब ने देखा कि बिना दंड भोगे जान न बचेगी, तो बैठकें लगाने लगे। एक, दो , तीन, चार, पाँच।

सहसा एक दूसरी मोटर आती दिखायी दी। साहब ने देखा ओर नाक रगड़कर बोले -- पंडित जी, आप मेरा बाप है! मुझ पर दया करो, अब हम कभी मोटर पर न बैठेंगे। मुझे भी दया आ गाया। बोला -- नहीं मोटर पर बैठने से मैं नहीं रोकता, इतना ही कहता हूँ कि मोटर पर बैठ कर भी आदमियों को आदमी समझो।

दूसरी गाड़ी तेज़ चली आती थी। मैंने इशारा किया। सब आदमियों ने दो-दो पत्थर उठा लिये। उस गाड़ी का मालिक स्वयं ड्राइब कर रहा था। गाड़ी धीमी करके धीरे से सरक जाना चाहता था कि मैंने बढ़कर उसके दोनों कान पकड़े और खूब ज़ोर से हिला कर और दोनों गालों पर एक एक पड़ाका देकर बोला -- गाड़ी से छींटा न उड़ाया करो, समझे। चुपके से चले जाओ।

यह महोदय बक-झक तो करते रहेच मगर एक सौ आदमियों को पत्थर लिये खड़ा देखा तो बिना कान-पूँछ डुलाए चलते हुए।

उनके जाने के एक ही मिनट बाद दूसरी गाड़ी आयी। मैने 50 आदमियों को राह रोक लेने का हु्क्म दिया। गाड़ी रुक गयी। मैंने उन्हें भी चार पड़ाके देकर विदा किया मगर यह बेचारे भले आदमी थे। मजे से चाँटे खाकर चलते हुए।

सहसा एक आदमी ने कहा -- पुलिस आ रही है।

और सब-के-सब हुर्र हो गये! मैं भी सड़क के नीचे उतर गया और एक गली में घुस कर गायब हो गया!

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