वीरगाथा काल - हिन्दी साहित्य का इतिहास

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वी रगाथा काल ( संवत् 1050 - 1375) प्रकरण 3 देशभाषा काव्य पहले कहा जा चु...

वीरगाथा काल (संवत् 1050 - 1375)

प्रकरण 3


देशभाषा काव्य


पहले कहा जा चुका है कि प्राकृत की रूढ़ियों से बहुत कुछ मुक्त भाषा के जो पुराने काव्य जैसे बीसलदेवरासो, पृथ्वीराजरासो आजकल मिलते हैं वे संदिग्ध हैं। इसी संदिग्ध सामग्री को लेकर थोड़ा-बहुत विचार हो सकता है, उसी पर हमें संतोष करना पड़ता है।
इतना अनुमान तो किया ही जा सकता है कि प्राकृत पढ़े हुए पंडित ही उस समय कविता नहीं करते थे। जनसाधारण की बोली में गीत, दोहे आदि प्रचलित चले आते रहे होंगे जिन्हें पंडित लोग गँवारू समझते रहे होंगे। ऐसी कविताएँ राजसभाओं तक भी पहुँच जाती रही होंगी। 'राजा भोज जस मूसरचंद' कहने वालों के सिवा देशभाषा में सुंदर भावभरी कविता करने वाले भी अवश्य ही रहे होंगे। राजसभाओं में सुनाए जाने वाले नीति, श्रृंगार आदि विषय प्राय: दोहों में कहे जाते थे और वीररस के पद्य छप्पय में। राजाश्रित कवि अपने राजाओं के शौर्य, पराक्रम और प्रताप का वर्णन अनूठी उक्तियों के साथ किया करते थे और अपनी वीरोल्लासभरी कविताओं से वीरों को उत्साहित किया करते थे। ऐसे राजाश्रित कवियों की रचनाओं के रक्षित रहने का अधिक सुबीता था। वे राजकीय पुस्तकालयों में भी रक्षित रहती थीं और भट्ट, चारण जीविका के विचार से उन्हें अपने उत्ताराधिकारियों के पास भी छोड़ जाते थे। उत्तरोत्तर भट्ट, चारणों की परंपरा में चलते रहने से उनमें फेरफार भी बहुत कुछ होता रहा। इसी रक्षित परंपरा की सामग्री हमारे हिन्दी साहित्य के प्रारंभिक काल में मिलती है। इसी से यह काल 'वीरगाथा काल' कहा गया।
भारत के इतिहास में यह वह समय था जबकि मुसलमानों के हमले उत्तर-पश्चिम की ओर से लगातार होते रहते थे। इनके धक्के अधिकतर भारत के पश्चिमी प्रांत के निवासियों को सहने पड़ते थे जहाँ हिंदुओं के बड़े-बड़े राज्य प्रतिष्ठित थे। गुप्त साम्राज्य के ध्वस्त होने पर हर्षवर्धन (मृत्यु संवत् 704) के उपरांत भारत का पश्चिमी भाग ही भारतीय सभ्यता और बल वैभव का केंद्र हो रहा था। कन्नौज, अजमेर, अन्हलवाड़ा आदि बड़ी-बड़ी राजधानियाँ उधर ही प्रतिष्ठित थीं। उधर की भाषा ही शिष्ट भाषा मानी जाती थी और कविचारण आदि उसी भाषा में रचना करते थे। प्रारंभिक काल का जो साहित्य हमें उपलब्ध है उसका आविर्भाव उसी भू-भाग में हुआ। अत: यह स्वाभाविक है कि उसी भू-भाग की जनता की चित्तवृत्ति की छाप उस साहित्य पर हो। हर्षवर्धन के उपरांत ही साम्राज्य भावना देश से अंतर्हित हो गई थी और खंड-खंड होकर जो गहरवार, चौहान, चंदेल और परिहार आदि राजपूत राज्य पश्चिम की ओर प्रतिष्ठित थे, वे अपने प्रभाव की वृद्धि के लिए परस्पर लड़ा करते थे। लड़ाई किसी आवश्यकतावश नहीं होती थी, कभी-कभी तो शौर्य प्रदर्शन मात्र के लिए यों ही मोल ले ली जाती थी। बीच-बीच में मुसलमानों के भी हमले होते रहते थे। सारांश यह कि जिस समय से हमारे हिन्दी साहित्य का अभ्युदय होता है, वह लड़ाई-भिड़ाई का समय था, वीरता के गौरव का समय था। और सब बातें पीछे पड़ गई थीं।
महमूद गजनवी (मृत्यु संवत् 1087) के लौटने के पीछे गजनवी सुलतानों का एक हाकिम लाहौर में रहा करता था और वहाँ से लूटमार के लिए देश के भिन्न-भिन्न भागों पर, विशेषत: राजपूताने पर चढ़ाइयाँ हुआ करती थीं। इन चढ़ाइयों का वर्णन फारसी तवारीखों में नहीं मिलता, पर कहीं-कहीं संस्कृत ऐतिहासिक काव्यों में मिलता है। साँभर (अजमेर) का चौहान राजा दुर्लभराज द्वितीय मुसलमानों के साथ युद्ध करने में मारा गया था। अजमेर बसानेवाले अजयदेव ने मुसलमानों को परास्त किया था। अजयदेव के पुत्र अर्णोराज (आना) के समय में मुसलमानों की सेना फिर पुष्कर की घाटी लाँघकर उस स्थान पर जा पहुँची जहाँ अब आनासागर है। अर्णोराज ने उस सेना का संहार कर बड़ी भारी विजय प्राप्त की। वहाँ म्लेच्छ मुसलमानों का रक्त गिरा था, इससे उस स्थान को अपवित्र मानकर वहाँ अर्णोराज ने एक बड़ा तालाब बनवा दिया जो 'आनासागर' कहलाया।
आना के पुत्र बीसलदेव (विग्रहराज चतुर्थ) के समय में वर्तमान किशनगढ़ राज्य तक मुसलमानों की सेना चढ़ आई जिसे परास्त कर बीसलदेव आर्यावर्त से मुसलमानों को निकालने के लिए उत्तर की ओर बढ़ा। उसने दिल्ली और झाँसी के प्रदेश अपने राज्य में मिलाए और आर्यावर्त के एक बड़े भू-भाग से मुसलमानों को निकाल दिया। इस बात का उल्लेख दिल्ली में अशोक लेखवाले शिवालिक स्तंभ पर खुदे हुए बीसलदेव के वि. संवत् 1220 के लेख से पाया जाता है। शहाबुद्दीन गोरी की पृथ्वीराज पर पहली चढ़ाई (संवत् 1247) के पहले भी गोरियों की सेना ने नाड़ौल पर धावा किया था, पर उसे हारकर लौटना पड़ा था। इसी प्रकार महाराज पृथ्वीराज के मारे जाने और दिल्ली तथा अजमेर पर मुसलमानों का अधिकार हो जाने के पीछे भी बहुत दिनों तक राजपूताने आदि में कई स्वतंत्र हिंदू राजा थे जो बराबर मुसलमानों से लड़ते रहे। इसमें सबसे प्रसिद्ध रणथंभौर के महाराज हम्मीरदेव हुए हैं जो महाराज पृथ्वीराज चौहान की वंशपरंपरा में थे। वे मुसलमानों से निरंतर लड़ते रहे और उन्होंने उन्हें कई बार हराया था। सारांश यह कि पठानों के शासनकाल तक हिंदू बराबर स्वतंत्रता के लिए लड़ते रहे।
राजा भोज की सभा में खड़े होकर राजा की दानशीलता का लंबा-चौड़ा वर्णन करके लाखों रुपये पाने वाले कवियों का समय बीत चुका था। राजदरबारों में शास्त्रर्थों की वह धूम नहीं रह गई थी। पांडित्य के चमत्कार पर पुरस्कार का विधान भी ढीला पड़ गया था। उस समय तो जो भाट या चारण किसी राजा के पराक्रम, विजय, शत्रुकन्याहरण आदि का अत्युक्तिपूर्ण आलाप करता या रणक्षेत्रों में जाकर वीरों के हृदय में उत्साह की उमंगें भरा करता था, वही सम्मान पाता था।
इस दशा में काव्य या साहित्य के और भिन्न-भिन्न अंगों की पूर्ति और समृद्धि का सामुदायिक प्रयत्न कठिन था। उस समय तो केवल वीरगाथाओं की उन्नति संभव थी। इस वीरगाथा को हम दोनों रूपों में पाते हैं मुक्तक के रूप में भी और प्रबंध के रूप में भी। फुटकल रचनाओं का विचार छोड़कर यहाँ वीरगाथात्मक प्रबंधकाव्यों का ही उल्लेख किया जाता है। जैसे योरप में वीरगाथाओं का प्रसंग 'युद्ध और प्रेम' रहा, वैसे ही यहाँ भी था। किसी राजा की कन्या के रूप का संवाद पाकर दलबल के साथ चढ़ाई करना और प्रतिपक्षियों को पराजित कर उस कन्या को हरकर लाना वीरों के गौरव और अभिमान का काम माना जाता था। इस प्रकार इन काव्यों में श्रृंगार का भी थोड़ा मिश्रण रहता था, पर गौण रूप में; प्रधान रस वीर ही रहता था। श्रृंगार केवल सहायक के रूप में रहता था। जहाँ राजनीतिक कारणों से भी युद्ध होता था, वहाँ भी उन कारणों का उल्लेख न कर कोई रूपवती स्त्री ही कारण कल्पित करके रचना की जाती थी। जैसे शहाबुद्दीन के यहाँ से एक रूपवती स्त्री का पृथ्वीराज के यहाँ आना ही लड़ाई की जड़ लिखी गई है। हम्मीर पर अलाउद्दीन की चढ़ाई का भी ऐसा ही कारण कल्पित किया गया है। इस प्रकार इन काव्यों में प्रथानुकूल कल्पित घटनाओं की बहुत अधिक योजना रहती थी।
ये वीरगाथाएँ दो रूपों में मिलती हैं प्रबंधकाव्य के साहित्यिक रूप में और वीरगीतों (बैलड्स) के रूप में। साहित्यिक प्रबंध के रूप में जो सबसे प्राचीन ग्रंथ उपलब्ध है, वह है 'पृथ्वीराजरासो'। वीरगीत के रूप में हमें सबसे पुरानी पुस्तक 'बीसलदेवरासो' मिलती है, यद्यपि उसमें समयानुसार भाषा के परिवर्तन का आभास मिलता है। जो रचना कई सौ वर्षों से लोगों में बराबर गाई जाती रही हो, उसकी भाषा अपने मूल रूप में नहीं रह सकती। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण 'आल्हा' है जिसके गानेवाले प्राय: समस्त उत्तरी भारत में पाए जाते हैं।
यहाँ पर वीरकाल के उन ग्रंथों का उल्लेख किया जाता है, जिसकी या तो प्रतियाँ मिलती हैं या कहीं उल्लेख मात्र पाया जाता है। ये ग्रंथ 'रासो' कहलाते हैं। कुछ लोग इस शब्द का संबंध 'रहस्य' से बतलाते हैं। पर 'बीसलदेवरासो' में काव्य के अर्थ में 'रसायण' शब्द बार-बार आया है। अत: हमारी समझ में इसी 'रसायण' शब्द से होते-होते 'रासो' हो गया है।
1. खुमानरासो संवत् 810 और 1000 के बीच में चित्तौड़ के रावल खुमान नाम के तीन राजा हुए हैं। कर्नल टाड ने इनको एक मानकर इनके युध्दों का विस्तार से वर्णन किया है। उनके वर्णन का सारांश यह है कि कालभोज (बाप्पा) के पीछे खुम्माण गद्दी पर बैठा, जिसका नाम मेवाड़ के इतिहास में प्रसिद्ध है और जिसके समय में बगदाद के खलीफा अलमामूँ ने चित्तौड़ पर चढ़ाई की। खुम्माण की सहायता के लिए बहुत-से राजा आए और चित्तौड़ की रक्षा हो गई। खुम्माण ने 24 युद्ध किए और वि. संवत् 869 से 893 तक राज्य किया। यह समस्त वर्णन 'दलपतविजय' नामक किसी कवि के रचित खुमानरासो के आधार पर लिखा गया जान पड़ता है। पर इस समय खुमानरासो की जो प्रति प्राप्त है, वह अपूर्ण है और उसमें महाराणा प्रताप सिंह तक का वर्णन है। कालभोज (बाप्पा) से लेकर तीसरे खुमान तक की वंश परंपरा इस प्रकार है कालभोज (बाप्पा), खुम्माण, मत्ताट, भर्तृपट्ट, सिंह, खुम्माण (दूसरा), महायक, खुम्माण (तीसरा)। कालभोज का समय वि. संवत् 791 से 810 तक है और तीसरे खुम्माण के उत्तराधिकारी भर्तृपट्ट (दूसरे) के समय के दो शिलालेख वि. संवत् 999 और 1000 के मिले हैं। अतएव 190 वर्षों का औसत लगाने पर तीनों खुम्माणों का समय अनुमानत: इस प्रकार ठहराया जा सकता है
खुम्माण (पहला)एवि. संवत् 810-865
खुम्माण (दूसरा)एवि. संवत् 870-900
खुम्माण (तीसरा)एवि. संवत् 965-990
अब्बासिया वंश का अलमामूँ वि. संवत् 870 से 890 तक खलीफा रहा। इस समय के पूर्व खलीफाओं के सेनापतियों ने सिंध देश की विजय कर ली थी और उधर से राजपूताने पर मुसलमानों की चढ़ाइयाँ होने लगी थीं। अतएव यदि किसी खुम्माण से अलमामँ की सेना से लड़ाई हुई होगी तो वह दूसरा खुम्माण रहा होगा और उसी के नाम पर 'खुमानरासो' की रचना हुई होगी। यह नहीं कहा जा सकता कि इस समय जो खुमानरासो मिलता है, उसमें कितना अंश पुराना है। उसमें महाराणा प्रताप सिंह तक का वर्णन मिलने से यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि जिस रूप में यह ग्रंथ अब मिलता है वह उसे वि. संवत् की सत्रहवीं शताब्दी में प्राप्त हुआ होगा। शिवसिंह सरोज के कथनानुसार एक अज्ञातनामा भाट ने खुमानरासो नामक काव्य ग्रंथ लिखा था जिसमें श्रीरामचंद्र से लेकर खुमान तक के युध्दों का वर्णन था। यह नहीं कहा जा सकता कि दलपतविजय असली खुमानरासो का रचयिता था अथवा उसके पिछले परिशिष्ट का।
2. बीसलदेवरासो नरपति नाल्ह कवि विग्रहराज चतुर्थ उपनाम बीसलदेव का समकालीन था। कदाचित् यह राजकवि था। इसने 'बीसलदेवरासो' नामक एक छोटा-सा (100 पृष्ठों का) ग्रंथ लिखा है जो वीरगीत के रूप में है। ग्रंथ में निर्माणकाल यों दिया है
बारह सै बहोत्तराँ मझारि। जेठबदी नवमी बुधावारि।
'नाल्ह' रसायण आरंभइ। शारदा तुठी ब्रह्मकुमारि
'बारह सै बहोत्तराँ' का स्पष्ट अर्थ 1212 है। 'बहोत्तर शब्द, 'बरहोत्तर', 'द्वादशोत्तर' का रूपांतर है। अत: 'बारह सै बहोत्तराँ' का अर्थ 'द्वादशोत्तर बारह सै' अर्थात् 1212 होगा। गणना करने पर विक्रम संवत् 1212 में ज्येष्ठ बदी नवमी को बुधवार ही पड़ता है। कवि ने अपने रासो में सर्वत्र वर्तमान काल का ही प्रयोग किया है जिससे वह बीसलदेव का समकालीन जान पड़ता है। विग्रहराज चतुर्थ (बीसलदेव) का समय भी 1220 के आसपास है। उसके शिलालेख भी संवत् 1210 और 1220 के प्राप्त हैं। बीसलदेवरासो में चार खंड है। यह काव्य लगभग 2000 चरणों में समाप्त हुआ है। इसकी कथा का सार यों है
खंड 1 मालवा के भोज परमार की पुत्री राजमती से साँभर के बीसलदेव का विवाह होना।
खंड 2 बीसलदेव का राजमती से रूठकर उड़ीसा की ओर प्रस्थान करना तथा वहाँ एक वर्ष रहना।
खंड 3 राजमती का विरह वर्णन तथा बीसलदेव का उड़ीसा से लौटना।
खंड 4 भोज का अपनी पुत्री को अपने घर लिवा ले जाना तथा बीसलदेव का वहाँ जाकर राजमती को फिर चित्तौड़ लाना।
दिए हुए संवत् के विचार से कवि अपने नायक का समसामयिक जान पड़ता है। पर वर्णित घटनाएँ, विचार करने पर, बीसलदेव के बहुत पीछे की लिखी जान पड़ती हैं, जबकि उनके संबंध में कल्पना की गुंजाइश हुई होगी। यह घटनात्मक काव्य नहीं है, वर्णनात्मक है। इसमें दो ही घटनाएँ हैं बीसलदेव का विवाह और उनका उड़ीसा जाना। इनमें से पहली बात तो कल्पनाप्रसूत प्रतीत होती है। बीसलदेव से सौ वर्ष पहले ही धार के प्रसिद्ध परमार राजा भोज का देहांत हो चुका था। अत: उनकी कन्या के साथ बीसलदेव का विवाह किसी पीछे के कवि की कल्पना ही प्रतीत होती है। उस समय मालवा में भोज नाम का कोई राजा नहीं था। बीसलदेव की एक परमार वंश की रानी थी, यह बात परंपरा से अवश्य प्रसिद्ध चली आती थी, क्योंकि इसका उल्लेख पृथ्वीराजरासो में भी है। इसी बात को लेकर पुस्तक में भोज का नाम रखा हुआ जान पड़ता है। अथवा यह हो सकता है कि धार के परमारों की उपाधि ही भोज रही हो और उस आधार पर कवि ने उसका यह केवल उपाधि सूचक नाम ही दिया हो, असली नाम न दिया हो। कदाचित इन्हीं में से किसी की कन्या के साथ बीसलदेव का विवाह हुआ हो। परमार कन्या के संबंध में कई स्थानों पर जो वाक्य आए हैं, उन पर ध्यान देने से यह सिध्दांत पुष्ट होता है कि राजा भोज का नाम कहीं पीछे से न मिलाया गया हो; जैसे 'जनमी गोरी तू जेसलमेर', 'गोरड़ी जेसलमेर की'। आबू के परमार भी राजपूताने में फैले हुए थे। अत: राजमती का उनमें से किसी सरदार की कन्या होना भी संभव है। पर भोज के अतिरिक्त और भी नाम इसी प्रकार जोड़े हुए मिलते हैं; जैसे 'माघ अचरज, कवि कालिदास'।
जैसा पहले कह आए हैं, अजमेर के चौहान राजा बीसलदेव (विग्रहराज चतुर्थ) बड़े वीर और प्रतापी थे और उन्होंने मुसलमानों के विरुद्ध कई चढ़ाइयाँ की थीं और कई प्रदेशों को मुसलमानों से खाली कराया था। दिल्ली और झाँसी के प्रदेश इन्हीं ने अपने राज्य में मिलाए थे। इनके वीर चरित का बहुत कुछ वर्णन इनके राजकवि सोमदेव रचित 'ललित विग्रहराज नाटक' (संस्कृत) में है जिसका कुछ अंश बड़ी-बड़ी शिलाओं पर खुदा हुआ मिला है और राजपूताना म्यूजियम में सुरक्षित है। पर 'नाल्ह' के इस बीसलदेव में, जैसा कि होना चाहिए था, न तो उक्त वीर राजा की ऐतिहासिक चढ़ाइयों का वर्णन है, न उसके शौर्य-पराक्रम का। श्रृंगार रस की दृष्टि से विवाह और रूठकर विदेश जाने का (प्रोषितपतिका के वर्णन के लिए) मनमाना वर्णन है। अत: इस छोटी-सी पुस्तक को बीसलदेव ऐसे वीर का 'रासो' कहना खटकता है। पर जब हम देखते हैं कि यह कोई काव्य ग्रंथ नहीं है, केवल गाने के लिए इसे रचा गया था, तो बहुत कुछ समाधान हो जाता है।
भाषा की परीक्षा करके देखते हैं तो वह साहित्यिक नहीं है, राजस्थानी है। जैसे सूकइ छै (=सूखता है), पाटण थीं (= पाटन से), भोज तणा (= भोज का), खंड-खंडरा (= खंड-खंड का) इत्यादि। इस ग्रंथ से एक बात का आभास अवश्य मिलता है। वह यह कि शिष्ट काव्यभाषा में ब्रज और खड़ी बोली के प्राचीन रूप का ही राजस्थान में भी व्यवहार होता था। साहित्य की सामान्य भाषा 'हिन्दी' ही थी जो पिंगल भाषा कहलाती थी। बीसलदेव रासो में भी बीच-बीच में बराबर इस साहित्यिक भाषा (हिन्दी) को मिलाने का प्रयत्न दिखाई पड़ता है। भाषा की प्राचीनता पर विचार करने के पहले यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि गाने की चीज होने के कारण इसकी भाषा में समयानुसार बहुत कुछ फेरफार होता आया है। पर लिखित रूप में रक्षित होने के कारण इसका पुराना ढाँचा बहुत कुछ बचा हुआ है। उदाहरण के लिए मेलवि =मिलाकर, जोड़कर; चितह = चिता में; रणि = रण में; प्रापिजइ=प्राप्त हो या किया जाय; ईणी विधि = इस विधि; इसउ =ऐसा; बाल हो = बाला का। इसी प्रकार 'नयर' (नगर), 'पसाउ' (प्रसाद), पयोहर (पयोधर) आदि प्राकृत शब्द भी हैं जिनका प्रयोग कविता में अपभ्रंशकाल से लेकर पीछे तक होता रहा।
इसमें आए हुए कुछ फारसी, अरबी, तुरकी शब्दों की ओर भी ध्यान जाता है। जैसे महल, इनाम, नेजा, ताजनों (ताजियाना) आदि। जैसा कहा जा चुका है, पुस्तक की भाषा में फेरफार अवश्य हुआ है; अत: ये शब्द पीछे से मिले हुए भी हो सकते हैं और कवि द्वारा व्यवहृत भी। कवि के समय से पहले ही पंजाब में मुसलमानों का प्रवेश हो गया था और वे इधर-उधर जीविका के लिए फैलने लगे थे। अत: ऐसे साधारण शब्दों का प्रचार कोई आश्चर्य की बात नहीं। बीसलदेव के सरदारों में ताजुद्दीन मियाँ भी मौजूद हैं
मंहल पलाण्यो ताजदीन। खुरसाणी चढ़ि चाल्यो गोंड़
उपर्युक्त विवेचन के अनुसार यह पुस्तक न तो वस्तु के विचार से और न भाषा के विचार से अपने असली और मूल रूप में कही जा सकती है। रायबहादुर पंडित गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने इसे हम्मीर के समय की रचना कहा है। (राजपूताने का इतिहास, भूमिका, पृष्ठ 19)। यह नरपति नाल्ह की पोथी का विकृत रूप अवश्य है जिसके आधार पर हम भाषा और साहित्य संबंधी कई तथ्यों पर पहुँचते हैं। ध्यान देने की पहली बात है, राजपूताने के एक भाट का अपनी राजस्थानी में हिन्दी का मेल करना। जैसे 'मोती का आखा किया', 'चंदन काठ को माँड़वो', 'सोना की चोरी', 'मोती की माल' इत्यादि। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि प्रादेशिक बोलियों के साथ-साथ ब्रज या मध्य देश की भाषा का आश्रय लेकर एक सामान्य साहित्यिक भाषा भी स्वीकृत हो चुकी थी, जो चारणों में पिंगल भाषा के नाम से पुकारी जाती थी। अपभ्रंश के योग से शुद्ध राजस्थानी भाषा का जो साहित्यिक रूप था वह 'डिंगल' कहलाता था। हिन्दी साहित्य के इतिहास में हम केवल पिंगल भाषा में लिखे हुए ग्रंथों का ही विचार कर सकते हैं। दूसरी बात, जो कि साहित्य से संबंध रखती है, वीर और श्रृंगार का मेल है। इस ग्रंथ में श्रृंगार की ही प्रधानता है, वीररस किंचित् आभास मात्र है। संयोग और वियोग के गीत ही कवि ने गाए हैं।
बीसलदेवरासो के कुछ पद्य देखिए
परणबा1 चाल्यो बीसलराय । चउरास्या2 सहु3 लिया बोलाइ।
जान तणी4 साजति करउ । जीरह रँगावली पहरज्यो टोप
हुअउ पइसारउ बीसलराव । आवी सयल5 अंतेवरी6 राव
रूप अपूरब पेषियइ । इसी अस्त्री नहिं सयल संसार
अतिरंगस्वामीसूँ मिलीराति । बेटी राजा भोज की
गरब करि ऊभो7 छइ साँभरयो राव । मो सरीखा नहिं ऊर भुवाल
म्हाँ घरि8 साँभर उग्गहइ । चिहुँ दिसि थाण जेसलमेर
''गरबि न बोलो हो साँभरयो राव9 । तो सरीखा घणा ओर भुवाल
एक उड़ीसा को धाणी । बचन हमारइ तू मानि जु मानि
ज्यूँ थारइ10 साँभर उग्गहइ । राजा उणि घरि उग्गहइ हीराखान।
कुँवरि कहइ ''सुणि, साँभरया राव । काई11 स्वामी तू उलगई12 जाइ?
कहेउ हमारउ जइ सुणउ । थारइ छइ13 साठि अंतेवरी नारि'
''कड़वा बोल न बोलिस नारि । तू मो मेल्हसी14 चित्त बिसारि
जीभ न जीभ विगोयनो15 । दव का दाधा कुपली मेल्हइ''16Ï
जीभ का दाधा नु पाँगुरइ17 । नाल्ह कहइ सुणीजइ सब कोइ
आव्यो राजा मास बसंत । गढ़ माहीं गूड़ी उछली18Ï
जइ धान मिलती अंग सँभार । मान भंग हो तो बाल हो19
ईणी परिरहता राज दुवारि20।
(3) चंदबरदाई (संवत् 1225-1249) ये हिन्दी के प्रथम महाकवि माने जाते हैं और इनका पृथ्वीराजरासो हिन्दी का प्रथम महाकाव्य है। चंद दिल्ली के अंतिम हिंदू सम्राट, महाराजा पृथ्वीराज के सामंत और राजकवि प्रसिद्ध हैं। इससे इनके नाम में भावुक हिंदुओं के लिए एक विशेष प्रकार का आकर्षण है। रासो के अनुसार ये भट्ट जाति के जगात नामक गोत्र के थे। इनके पूर्वजों की भूमि पंजाब थी, जहाँ लाहौर में इनका जन्म हुआ था। इनका और महाराज पृथ्वीराज का जन्म एक ही दिन हुआ था और दोनों ने एक ही दिन यह संसार भी छोड़ा था। ये महाराज पृथ्वीराज के राजकवि ही नहीं, उनके सखा और सामंत भी थे तथा षड्भाषा, व्याकरण, काव्य, साहित्य, छंद शास्त्र, ज्योतिष, पुराण, नाटक आदि अनेक विद्याओं में पारंगत थे। इन्हें जालंधारी देवी का इष्ट था जिसकी कृपा से ये अदृष्ट काव्य भी कर सकते थे। इनका जीवन पृथ्वीराज के जीवन के साथ ऐसा मिला-जुला था कि अलग नहीं किया जा सकता। युद्ध में, आखेट में, सभा में, यात्रा में सदा महाराज के साथ रहते थे और जहाँ जो बातें होती थीं, सब में सम्मिलित रहते थे।
पृथ्वीराजरासो ढाई हजार पृष्ठों का बहुत बड़ा ग्रंथ है जिसमें 69 समय (सर्ग या अध्याय) हैं। प्राचीन समय में प्रचलित प्राय: सभी छंदों का व्यवहार हुआ है। मुख्य छंद हैं कवित्त (छप्पय), दूहा, तोमर, त्रोटक, गाहा और आर्या। जैसे कादंबरी के संबंध में प्रसिद्ध है कि उसका पिछला भाग बाण के पुत्र ने पूरा किया है वैसे ही रासो के पिछले भाग का भी चंद के पुत्र जल्हण द्वारा पूर्ण किया जाना कहा जाता है। रासो के अनुसार जब शहाबुद्दीन गोरी पृथ्वीराज को कैद करके गजनी ले गया तब कुछ दिनों पीछे चंद भी वहीं गए। जाते समय कवि ने अपने पुत्र जल्हण के हाथ में रासो की पुस्तक देकर उसे पूर्ण करने का संकेत किया। जल्हण के हाथ में रासो को सौंपे जाने और उसके पूरे किए जाने का उल्लेख रासो में है
पुस्तक जल्हन हत्थ दै चलि गज्जन नृपकाज।
रघुनाथचरित हनुमंतकृत भूप भोज उद्ध रिय जिमि।
पृथिराजसुजस कवि चंद कृत चंदनंद उद्ध रिय तिमि
पृथ्वीराजरासो में आबू के यज्ञकुंड से चार क्षत्रिय कुलों की उत्पत्ति तथा चौहानों के अजमेर में राजस्थापन से लेकर पृथ्वीराज के पकड़े जाने तक का सविस्तार वर्णन है। इस ग्रंथ के अनुसार पृथ्वीराज अजमेर के चौहान राजा सोमेश्वर के पुत्र और अर्णोराज के पौत्र थे। सोमेश्वर का विवाह दिल्ली के तुंवर (तोमर) राजा अनंगपाल की कन्या से हुआ। अनंगपाल की दो कन्याएँ थीं सुंदरी और कमला। सुंदरी का विवाह कन्नौज के राजा विजयपाल के साथ हुआ और इस संयोग से जयचंद राठौर की उत्पत्ति हुई। दूसरी कन्या कमला का विवाह अजमेर के चौहान सोमेश्वर के साथ हुआ जिनके पुत्र पृथ्वीराज हुए। अनंगपाल ने अपने नाती पृथ्वीराज को गोद लिया जिससे अजमेर और दिल्ली का राज एक हो गया। जयचंद को यह बात अच्छी न लगी। उसने एक दिन राजसूय यज्ञ करके सब राजाओं को यज्ञ के भिन्न-भिन्न कार्य करने के लिए निमंत्रित किया और इस यज्ञ के साथ ही अपनी कन्या संयोगिता का स्वयंवर रचा। राजसूय यज्ञ में सब राजा आए पर पृथ्वीराज नहीं आए। इसपर जयचंद ने चिढ़कर पृथ्वीराज की एक स्वर्णमूर्ति द्वारपाल के रूप में द्वार पर रखवा दी।
संयोगिता का अनुराग पहले से ही पृथ्वीराज पर था, अत: जब वह जयमाल लेकर रंगभूमि में आई तब उसने पृथ्वीराज की मूर्ति को ही माला पहना दी। इस पर जयचंद ने उसे घर से निकालकर गंगा किनारे के महल में भेज दिया। इधर पृथ्वीराज के सामंतों ने आकर यज्ञ विध्वंस किया। फिर पृथ्वीराज ने चुपचाप आकर संयोगिता से गंधर्व विवाह किया और अंत में वे उसे हर ले गए। रास्ते में जयचंद की सेना से बहुत युद्ध हुआ, पर संयोगिता को लेकर पृथ्वीराज कुशलतापूर्वक दिल्ली पहुँच गए। वहाँ भोगविलास में ही उनका समय बीतने लगा, राज्य की रक्षा का ध्यान न रह गया।
बल का बहुत कुछ ह्रास तो जयचंद तथा और राजाओं के साथ लड़ते-लड़ते हो चुका था और बड़े-बड़े सामंत मारे जा चुके थे। अच्छा अवसर देख शहाबुद्दीन चढ़ आया, पर हार गया और पकड़ा गया। पृथ्वीराज ने उसे छोड़ दिया। वह बार-बार चढ़ाई करता रहा और अंत में पृथ्वीराज पकड़कर गजनी भेज दिए गए। कुछ काल के पीछे कविचंद भी गजनी पहुँचे। एक दिन चंद के इशारे पर पृथ्वीराज ने शब्दबेधी बाण द्वारा शहाबुद्दीन को मारा और फिर दोनों एक-दूसरे को मारकर मर गए। शहाबुद्दीन पृथ्वीराज के बैर का कारण यह लिखा गया है कि शहाबुद्दीन अपने यहाँ की एक सुंदरी पर आसक्त था, जो एक-दूसरे पठान सरदार हुसैनशाह को चाहती थी। जब ये दोनों शहाबुद्दीन से तंग हुए तब हारकर पृथ्वीराज के पास भाग आए। शहाबुद्दीन ने पृथ्वीराज के यहाँ कहला भेजा कि उन दोनों को अपने यहाँ से निकाल दो। पृथ्वीराज ने उत्तर दिया कि शरणागत की रक्षा करना क्षत्रियों का धर्म है, अत: इन दोनों की हम बराबर रक्षा करेंगे। इसी बैर से शहाबुद्दीन ने दिल्ली पर चढ़ाइयाँ कीं। यह तो पृथ्वीराज का मुख्य चरित्र हुआ। इसके अतिरिक्त बीच-बीच में बहुत-से राजाओं के साथ पृथ्वीराज के युद्ध और अनेक राजकन्याओं के साथ विवाह की कथाएँ रासो में भरी पड़ी हैं।
ऊपर लिखे वृत्तांत और रासो में दिए हुए संवतों का ऐतिहासिक तथ्यों के साथ बिल्कुल मेल न खाने के कारण अनेक विद्वानों ने पृथ्वीराजरासो को पृथ्वीराज के समसामयिक किसी कवि की रचना होने में पूरा संदेह किया है और उसे सोलहवीं शताब्दी में लिखा हुआ एक जाली ग्रंथ ठहराया है। रासो में चंगेज, तैमूर आदि कुछ पीछे के नाम आने से यह संदेह और भी पुष्ट होता है। प्रसिद्ध इतिहासज्ञ रायबहादुर पंडित गौरीशंकर हीराचंद ओझा रासो में वर्णित घटनाओं तथा संवतों को बिल्कुल भाटों की कल्पना मानते हैं। पृथ्वीराज की राजसभा के कश्मीरी कवि जयानक ने संस्कृत में 'पृथ्वीराजविजय' नामक एक काव्य लिखा है जो पूरा नहीं मिलता है। उसमें दिए हुए संवत् तथा घटनाएँ ऐतिहासिक खोज के अनुसार ठीक ठहरती हैं। उसमें पृथ्वीराज की माता का नाम कर्पूरदेवी लिखा है जिसका समर्थन झाँसी के शिलालेख से भी होता है। उक्त ग्रंथ अत्यंत प्रामाणिक और समसामयिक रचना है। उसके तथा 'हम्मीर महाकाव्य' आदि कई प्रामाणिक ग्रंथों के अनुसार सोमेश्वर का दिल्ली के तोमर राजा अनंगपाल की पुत्री से विवाह होना और पृथ्वीराज का अपने नाना की गोद जाना, राणा समरसिंह का पृथ्वीराज का समकालीन होना और उनके पक्ष में लड़ना, संयोगिताहरण इत्यादि बातें असंगत सिद्ध होती हैं। इसी प्रकार आबू के यज्ञ से चौहान आदि चार अग्निकुलों की उत्पत्ति की कथा भी शिलालेखों की जाँच करने पर कल्पित ठहरती हैं; क्योंकि इनमें से सोलंकी, चौहान आदि कई कुलों के प्राचीन राजाओं के शिलालेख मिले हैं, जिनमें वे सूर्यवंशी, चंद्रवंशी आदि कहे गए हैं, अग्निकुल का कहीं कोई उल्लेख नहीं है।
चंद ने पृथ्वीराज का जन्मकाल संवत् 1115 में, दिल्ली गोद जाना 1122 में, कन्नौज जाना 1151 में और शहाबुद्दीन के साथ युद्ध 1158 में लिखा है। पर शिलालेखों और दानपत्रों में जो संवत् मिलते हैं, उनके अनुसार रासो में दिए हुए संवत् ठीक नहीं हैं। अब तक ऐसे दानपत्र या शिलालेख जिनमें पृथ्वीराज, जयचंद और परमर्दिदेव (महोबे के राजा परमाल) के नाम आए हैं, इस प्रकार मिले हैं
पृथ्वीराज के 4, जिनके संवत् 1224 और 1244 के बीच में हैं। जयचंद के 12, जिनके संवत् 1224 और 1243 के बीच में हैं। परमर्दिदेव के 6, जिनके संवत् 1223 और 1258 के बीच में हैं। इनमें से एक संवत् 1239 का है जिसमें पृथ्वीराज और परमर्दिदेव (राजा परमाल) के युद्ध का वर्णन है।
इन संवतों से पृथ्वीराज का जो समय निश्चित होता है उसकी सम्यक् पुष्टि फारसी तवारीखों से भी हो जाती है। फारसी इतिहासों के अनुसार शहाबुद्दीन के साथ पृथ्वीराज का प्रथम युद्ध 587 हिजरी (वि. संवत् 1248ई. सन् 1191) में हुआ। अत: इन संवतों के ठीक होने में किसी प्रकार का संदेह नहीं।
पं. मोहनलाल विष्णुलाल पंडया ने रासो के पक्ष समर्थन में इस बात की ओर ध्यान दिलाया कि रासो के सब संवतों में, यथार्थ संवतों से 90-91 वर्ष का अंतर एक नियम से पड़ता है। उन्होंने यह विचार उपस्थित किया कि यह अंतर भूल नहीं है, बल्कि किसी कारण से रखा गया है। इसी धारणा को लिए हुए उन्होंने रासो के इस दोहे को पकड़ा
एकादस सै पंचदह विक्रम साक अनंद।
तिहि रिपुजय पुरहरन को भए पृथिराज नरिंद
और 'विक्रम साक अनंद' का अर्थ किया अ = शून्य और नंद = 9 अर्थात् 90 रहित विक्रम संवत्। अब क्यों ये 90 वर्ष घटाए गए, इसका वे कोई उपयुक्त कारण नहीं बता सके। नंदवंशी शूद्र थे, इसलिए उनका राजत्वकाल राजपूत भाटों ने निकाल दिया, इस प्रकार की विलक्षण कल्पना करके वे रह गए। पर इन कल्पनाओं से किसी प्रकार समाधान नहीं होता। आज तक और कहीं प्रचलित संवत् में से कुछ काल निकालकर संवत् लिखने की प्रथा नहीं पाई गई। फिर यह भी विचारणीय है कि जिस किसी ने प्रचलित विक्रम संवत् में से 90-91 वर्ष निकालकर पृथ्वीराजरासो में संवत् दिए हैं, उसने क्या ऐसा जानबूझकर किया है अथवा धोखे से या भ्रम में पड़कर। ऊपर जो दोहा उध्दृत किया गया है, उसमें 'अनंद' के स्थान पर कुछ लोग 'अनिंद' पाठ का होना अधिक उपयुक्त मानते हैं। इसी रासो में एक दोहा यह भी मिलता है
एकादस सै पंचदह विक्रम जिस ध्रमसुत्ता।
त्रातिय साक प्रथिराज कौ लिष्यौ विप्र गुन गुत्ता
इसमें भी नौ के गुप्त करने का अर्थ निकाला गया है, पर कितने में से नौ कम करने से यह तीसरा शक बनता है, यह नहीं कहा है। दूसरी बात यह कि 'गुन गुत्ता' ब्राह्मण का नाम (गुण गुप्त) प्रतीत होता है।
बात संवत् ही तक नहीं है। इतिहासविरुद्ध कल्पित घटनाएँ जो भरी पड़ी हैं उनके लिए क्या कहा जा सकता है? माना कि रासो इतिहास नहीं है, काव्यग्रंथ है। पर काव्यग्रंथों में सत्य घटनाओं में बिना किसी प्रयोजन के कोई उलट-फेर नहीं किया जाता। जयानक का पृथ्वीराजविजय भी तो काव्यग्रंथ ही है, फिर उसमें क्यों घटनाएँ और नाम ठीक-ठीक हैं? इस संबंध में इसके अतिरिक्त और कुछ कहने की जगह नहीं कि यह पूरा ग्रंथ वास्तव में जाली है। यह हो सकता है कि इसमें इधर-उधर कुछ पद्य चंद के भी बिखरे हों पर उनका पता लगाना असंभव है। यदि यह ग्रंथ किसी समसामयिक कवि का रचा होता और इसमें कुछ थोड़े-से अंश ही पीछे से मिले होते तो कुछ घटनाएँ और कुछ संवत् तो ठीक होते।
रहा यह प्रश्न कि पृथ्वीराज की सभा में चंद नाम का कोई कवि था या नहीं। पृथ्वीराजविजय के कर्ता जयानक ने पृथ्वीराज के मुख्य भाट या बंदिराज का नाम 'पृथ्वीभट्ट' लिखा है, चंद का नाम उसमें कहीं नहीं लिया है। पृथ्वीराजविजय के पाँचवें सर्ग में यह श्लोक आया है
तनयश्चंद्रराजस्य चंद्रराज इवाभवत्।
संग्रहं यस्सुवृत्तनां सुवृत्तनामिव व्यधात्
इसमें यमक के द्वारा जिस चंद्रराज कवि का संकेत है, यह राजबहादुर श्रीयुत् पं. गौरीशंकर हीराचंद ओझा के अनुसार 'चंद्रक' कवि है जिसका उल्लेख कश्मीरी कवि क्षेमेंद्र ने भी किया है। इस अवस्था में यही कहा जा सकता है कि 'चंदबरदाई' नाम का यदि कोई कवि था तो वह या तो पृथ्वीराज की सभा में न रहा होगा या जयानक के कश्मीर लौट जाने पर आया होगा। अधिक संभव यह जान पड़ता है कि पृथ्वीराज के पुत्र गोविंदराज या उनके भाई हरिराज या इन दोनों में से किसी के वंशज के यहाँ चंद नाम का कोई भट्ट कवि रहा हो जिसने उनके पूर्वज पृथ्वीराज की वीरता आदि के वर्णन में कुछ रचना की हो। पीछे जो बहुत-सा कल्पित 'भट्टभणंत' तैयार होता गया उन सबको लेकर और चंद को पृथ्वी का समसामयिक मान, उसी के नाम पर 'रासो' नाम की यह बड़ी इमारत खड़ी की गई हो।
भाषा की कसौटी पर यदि ग्रंथ को कसते हैं तो और भी निराश होना पड़ता है क्योंकि वह बिल्कुल बेठिकाने है उसमें व्याकरण आदि की कोई व्यवस्था नहीं है। दोहों की और कुछ-कुछ कवित्तों (छप्पयों) की भाषा तो ठिकाने की है, पर त्रोटक आदि छोटे छंदों में तो कहीं-कहीं अनुस्वारांत शब्दों की ऐसी मनमानी भरमार है जैसे कि संस्कृत प्राकृत की नकल की हो। कहीं-कहीं तो भाषा आधुनिक साँचे में ढली-सी दिखाई पड़ती है, क्रियाएँ नए रूपों में मिलती हैं। पर साथ ही कहीं-कहीं भाषा अपने असली प्राचीन साहित्यिक रूप में भी पाई जाती है जिसमें प्राकृत और अपभ्रंश शब्दों के साथ-साथ शब्दों के रूपों और विभक्तियों के चिद्द पुराने ढंग के हैं। इस दशा में भाटों के इस वाग्जाल के बीच कहाँ पर कितना अंश असली है, इसका निर्णय असंभव होने के कारण यह ग्रंथ न तो भाषा के इतिहास के और न साहित्य के इतिहास के जिज्ञासुओं के काम का है।
महामहोपाध्याय पं. हरप्रसाद शास्त्री ने 1909 से 1913 तक राजपूताने में प्राचीन ऐतिहासिक काव्यों की खोज में तीन यात्राएँ की थीं। उनका विवरण बंगाल की एशियाटिक सोसायटी ने छापा है। उस विवरण में 'पृथ्वीराजरासो' के विषय में बहुत कुछ लिखा है और कहा गया है कि कोई-कोई तो चंद के पूर्वपुरुषों को मगध से आया हुआ बताते हैं, पर पृथ्वीराजरासो में लिखा है कि चंद का जन्म लाहौर में हुआ था। कहते हैं कि चंद पृथ्वीराज के पिता सोमेश्वर के समय में राजपूताने में आया और पहले सोमेश्वर का दरबारी और पीछे से पृथ्वीराज का मंत्री, सखा और राजकवि हुआ। पृथ्वीराज ने नागौर बसाया था और वहीं बहुत-सी भूमि चंद को दी थी। शास्त्रीजी का कहना है कि नागौर में अब तक चंद के वंशज रहते हैं। इसी वंश के वर्तमान प्रतिनिधि नानूराम भाट से शास्त्रीजी की भेंट हुई। उसमें उन्हें चंद का वंशवृक्ष प्राप्त हुआ जो इस प्रकार है

चंदबरदाई

गुणचंद जल्लचंद

सीताचंद

वीरचंद

हरिचंद

रामचंद्र

विष्णुचंद उद्ध रचंद रूपचंद बुद्ध चंद देवचंद सूरदास

खेमचंद गोंविदचंद

जयचंद

मदनचंद शिवचंद बलदेवचंद

चौतचंद बेनीचंद

गोकुलचंद वसुचंद लेखचंद

कर्णचंद


गुणगंगचंद मोहनचंद

जगन्नाथ रामेश्वर

गंगाधार


भगवान सिंह

कर्मसिंह

माथुरसिंह

वाग्गोविंदसिंह

मानसिंह

विजयसिंह

आनंदरायजी

आसोजी गुमानजी कर्णीदान जैथमलजी बीरचंदजी

घमंडीरामजी बुधाजी

वृद्धि चंदजी

नानूरामजी

नानूरामजी का कहना है कि चंद के चार लड़के थे जिनमें से एक मुसलमान हो गया। दूसरे का कुछ पता नहीं, तीसरे के वंशज अंभोर में जा बसे और चौथे जल्ल का वंश नागौर में चला। पृथ्वीराजरासो में चंद के लड़कों का उल्लेख इस प्रकार है
दहति पुत्र कविचंद के सुंदर रूप सुजान।
इक्क जल्ह गुन बावरो गुन समुंद ससिभान
पृथ्वीराजरासो में कवि चंद के दसों पुत्रों के नाम दिए हैं; 'सूरदास' की साहित्यलहरी की टीका में एक पद ऐसा आया है जिसमें सूर की वंशावली दी है। वह पद यह है
प्रथम ही प्रथु यज्ञ तें भे प्रगट अद्भुत रूप।
ब्रह्मराव विचारि ब्रह्मा राखु नाम अनूप
पान पय देवी दियो सिव आदि सुर सुख पाय।
कह्यो दुर्गा पुत्र तेरो भयो अति अधिकाय
पारि पाँयन सुरन के सुर सहित अस्तुति कीन।
तासु वंस प्रसंस में भौ चंद चारु नवीन
भूप पृथ्वीराज दीन्हों तिन्हें ज्वाला देस।
तनय ताके चार कीनो प्रथम आप नरेस
दूसरे गुनचंद ता सुत सीलचंद सरूप।
वीरचंद प्रताप पूरन भयो अद्भुत रूप
रणथंभौर हमीर भूपति संगत खेलत जाय।
तासु बंस अनूप भो हरिचंद अति विख्याय
आगरे रहि गोपचल में रह्यो ता सुत वीर।
पुत्र जनमे सात ताके महा भट गंभीर
कृष्णचंद उदारचंद जु रूपचंद सुभाइ।
बुद्धि चंद प्रकास चौथे चंद भे सुखदाइ
देवचंद प्रबोध संसृतचंद ताको नाम।
भयो सप्तो नाम सूरजचंद मंद निकाम
इन दोनों वंशावलियों के मिलाने पर मुख्य भेद यह प्रकट होता है कि नानूराम ने जिनको जल्लचंद की वंश परंपरा में बताया है, उक्त पद में उन्हें गुणचंद की परंपरा में कहा गया है। बाकी नाम प्राय: मिलते हैं।
नानूराम का कहना है कि चंद ने तीन या चार हजार श्लोक संख्या में अपना काव्य लिखा था। उसके पीछे उनके लड़के ने अंतिम दस समयों को लिखकर उस ग्रंथ को पूरा किया। पीछे से और लोग उसमें अपनी रुचि अथवा आवश्यकता के अनुसार जोड़-तोड़ करते रहे। अंत में अकबर के समय में इसने एक प्रकार से परिवर्तित रूप धारण किया। अकबर ने इस प्रसिद्ध ग्रंथ को सुना था। उसके इस प्रकार उत्साह-प्रदर्शन पर, कहते हैं कि उस समय 'रासो' नामक अनेक ग्रंथों की रचना की गई। नानूराम का कहना है कि असली पृथ्वीराजरासो की प्रति मेरे पास है। पर उन्होंने महोबा समय की जो नकल महामहोपाध्याय पं. हरप्रसाद शास्त्री को दी थी वह और भी ऊटपटाँग और रद्दी है।
'पृथ्वीराजरासो' के 'पद्मावती समय' के कुछ पद्य नमूने के लिए दिए जातेहैं
हिंदुवान थान उत्तम सुदेस। तहँ उदित द्रुग्ग दिल्ली सुदेस।
संभरिनरेस चहुआन थान। प्रथिराज तहाँ राजंत भान
संभरिनरेस सोमेस पूत। देवत्त रूप अवतार धात21
जिहि पकरि साह साहब लीन। तिहुँ बेर करिय पानीपहीन
सिंगिनिसुसद्द गुनि चढ़ि जँजीर। चुक्कइ न सबद बेधांत तीर22

मनहु कला ससभान23 कला सोलह सो बन्निय।
बाल बैस, ससि ता समीप अम्रित रस पिन्निय
विगसि कमलस्रिग, भमर, बेनु, खंजन मृग लुट्टिय।24
हीर, कीर, अरु बिंब मोति नखसिख अहिघुट्टिय25

कुट्टिल केस सुदेस पोह परिचियत पिक्क सद।26
कमलगंधा बयसंधा, हंसगति चलति मंद मद
सेत वस्त्र सोहै सरीर नष स्वाति बूँद जस।
भमर भवहि भुल्लहिं सुभाव मकरंद बास रस

प्रिय प्रिथिराज नरेस जोग लिषि कग्गर27 दिन्नौ।
लगन बरग रचि सरब दिन्न द्वादस ससि लिन्नौ
सै ग्यारह अरु तीस साष संवत परमानह।
जो पित्रीकुल सुद्ध बरन, बरि रक्खहु प्रानह

दिक्खंत दिट्ठि उच्चरिय28 वर इक षलक्क बिलँब न करिय।
अलगार29 रयनि दिन पंच महि, ज्यों रुकमिनि कन्हर बरिय
संगह30 सषिय लिय सहस बाल। रुकमिनिय जेम31 लज्जत मराल
पूजियइ गउरि संकर मनाय। दच्छिनइ अंग करि लगिय पाय
फिरि32 देषि देषि प्रिथिराज राज। हँसि मुद्ध मुद्ध चर पट्ट लाज33

बज्जिय घोर निशान रान चौहान चहौं दिस।
सकल सूर सामंत समरि बल जंत्रा मंत्र तिस
उट्ठि राज प्रिथिराज बाग मनो लग्ग वीर नट।
कढत तेग मनबेग लगत मनो बीजु झट्ट घट
थकि रहे सूर कौतिक गगन, रँगन मगन भइ शोन धार।
हृदि34 हरषि वीर जग्गे हुलसि हुरेउ35 रंग नव रत्ता36 वर
षुरासन मुलतान खंधार मीरं। बलष स्यो37 बलं तेग अच्चूक तीरं
रुहंगी फिरंगी हलब्बी सुमानी। ठटी ठट्ट भल्लोच्च ढालं निसानी
मजारी चषी38 मुक्ख जंबुक्क लारी39 हजारी-हजारी हुँकै40 जोधा भारी
4-5. भट्ट केदार, मधुकर कवि (संवत् 1224-1243) जिस प्रकार चंदबरदाई ने महाराज पृथ्वीराज को कीर्तिमान किया है उसी प्रकार भट्ट केदार ने कन्नौज के सम्राट जयचंद का गुण गाया है। रासो में चंद और भट्ट केदार के संवाद का एक स्थान पर उल्लेख भी है। भट्ट केदार ने 'जयचंदप्रकाश' नाम का एक महाकाव्य लिखा था जिसमें महाराज जयचंद के प्रताप और पराक्रम का विस्तृत वर्णन था।41 इसी प्रकार का 'जयमयंकजसचंद्रिका' नामक एक बड़ा ग्रंथ मधुकर कवि ने भी लिखा था। पर दुर्भाग्य से दोनों ग्रंथ आज उपलब्ध नहीं हैं। केवल इनका उल्लेख सिंघायच दयालदास कृत 'राठौड़ाँ री ख्यात' में मिलता है जो बीकानेर के राज-पुस्तक-भांडार में सुरक्षित है। इस ख्यात में लिखा है कि दयालदास ने आदि से लेकर कन्नौज तक का वृत्तांत इन्हीं दोनों ग्रंथों के आधार पर लिखा है।
इतिहासज्ञ इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि विक्रम की तेरहवीं शताब्दी के आरंभ में उत्तर भारत के दो प्रधान साम्राज्य थे। एक तो था गहरवारों (राठौरों) का विशाल साम्राज्य, जिसकी राजधानी कन्नौज थी और जिसके अंतर्गत प्राय: सारा मध्य देश, काशी से कन्नौज तक था। दूसरा चौहानों का जिसकी राजधानी दिल्ली थी और जिसके अंतर्गत दिल्ली से अजमेर तक का पश्चिमी प्रांत था। कहने की आवश्यकता नहीं कि इन दोनों में गहरवारों का साम्राज्य अधिक विस्तृत, धन-धान्य-संपन्न और देश के प्रधान भाग पर था। गहरवारों की दो राजधानियाँ थीं कन्नौज और काशी। इसी से कन्नौज के गहरवार राजा काशिराज कहलाते थे। जिस प्रकार पृथ्वीराज का प्रभाव राजपूताने के राजाओं पर था उसी प्रकार जयचंद का प्रभाव बुंदेलखंड के राजाओं पर था। कालिंजर या महोबे के चंदेल राजा परमर्दिदेव (परमाल) जयचंद के मित्र या सामंत थे जिसके कारण पृथ्वीराज ने उन पर चढ़ाई की थी। चंदेल कन्नौज के पक्ष में दिल्ली के चौहान पृथ्वीराज से बराबर लड़ते रहे।
6. जगनिक (संवत् 1230) ऐसा प्रसिद्ध है कि कालिंजर के राजा परमार के यहाँ जगनिक नाम के एक भाट थे, जिन्होंने महोबे के दो प्रसिद्ध वीरों आल्हा और ऊदल (उदयसिंह) के वीरचरित का विस्तृत वर्णन एक वीरगीतात्मक काव्य के रूप में लिखा था जो इतना सर्वप्रिय हुआ कि उसके वीरगीतों का प्रचार क्रमश: सारे उत्तरी भारत में विशेषत: उन सब प्रदेशों में जो कन्नौज साम्राज्य के अंतर्गत थे हो गया। जगनिक के काव्य का आज कहीं पता नहीं है पर उसके आधार पर प्रचलित गीत हिन्दी भाषा भाषी प्रांतों के गाँव-गाँव में सुनाई पड़ते हैं। ये गीत 'आल्हा' के नाम से प्रसिद्ध हैं और बरसात में गाए जाते हैं। गाँवों में जाकर देखिए तो मेघगर्जन के बीच में किसी अल्हैत के ढोल के गंभीर घोष के साथ यह वीर हुंकार सुनाई देगी
बारह बरिस लै कूकर जीऐं, औ तेरह लै जिऐं सियार।
बरिस अठारह छत्री जीऐं, आगे जीवन के धिक्कार।
इस प्रकार साहित्यिक रूप में न रहने पर भी जनता के कंठ में जगनिक के संगीत की वीर दर्पपूर्ण प्रतिध्वनि अनेक बल खाती हुई अब तक चली आ रही है। इस दीर्घ कालयात्रा में उसका बहुत कुछ कलेवर बदल गया है। देश और काल के अनुसार भाषा में ही परिवर्तन नहीं हुआ है, वस्तु में भी बहुत अधिक परिवर्तन होता आया है। बहुत-से नए अस्त्रों, (जैसे बंदूक, किरिच), देशों और जातियों (जैसे फिरंगी) के नाम सम्मिलित हो गए हैं और बराबर होते जाते हैं। यदि यह ग्रंथ साहित्यिक प्रबंध पद्ध ति पर लिखा गया होता तो कहीं न कहीं राजकीय पुस्तकालयों में इसकी कोई प्रति रक्षित मिलती। पर यह गाने के लिए ही रचा गया था। इससे पंडितों और विद्वानों के हाथ इसकी रक्षा की ओर नहीं बढ़े, जनता ही के बीच इसकी गूँज बनी रही पर यह गूँज मात्र है, मूल शब्द नहीं। आल्हा का प्रचार यों तो सारे उत्तर भारत में है, पर बैसवाड़ा इसका केंद्र माना जाता है, वहाँ इसके गाने वाले बहुत अधिक मिलते हैं। बुंदेलखंड में विशेषत: महोबे के आसपास भी इसका चलन बहुत है।
इन गीतों के समुच्चय को सर्वसाधारण 'आल्हाखंड' कहते हैं जिससे अनुमान होता है कि आल्हा संबंधी ये वीरगीत जगनिक के रचे उस बड़े काव्य के एक खंड के अंतर्गत थे जो चंदेलों की वीरता के वर्णन में लिखा गया होगा। आल्हा और ऊदल परमाल के सामंत थे और बनाफर शाखा के क्षत्रिय थे। इन गीतों का एक संग्रह 'आल्हखंड' के नाम से छपा है। फर्रुखाबाद के तत्कालीन कलेक्टर मि. चार्ल्स इलियट ने पहले पहल इन गीतों का संग्रह करके 60-70 वर्ष पूर्व छपवाया था।
7. श्रीधर इन्होंने संवत् 1454 में 'रणमल्ल छंद' नामक एक काव्य रचा जिसमें ईडर के राठौर राजा रणमल्ल की उस विजय का वर्णन है जो उसने पाटन के सूबेदार जफर खाँ पर प्राप्त की थी। एक पद्य नीचे दिया जाता है
ढमढमइ ढमढमकार ढंकर ढोल ढोली जंगिया।
सुर करहि रण सहणाइ समुहरि सरस रसि समरंगिया
कलकलहिं काहल कोडि कलरवि कुमल कायर थरहरइ।
संचरइ शक सुरताण साहण साहसी सवि संगरइ

संदर्भ
1. ब्याहने, 2. सामंतों को, 3. सब, 4. यान की, बारात की, 5. सब, 6. अंत:पुर, 7. खड़ा है, 8. घर में, 9 स्वामी, राजा, 10. तुम्हारे (यहाँ), 11. क्यों, 12. परदेश में, 13. तेरे हैं, 14. भुला डाला,
15. बात से बात नहीं छिपाई जा सकती, 16. आग का जला कोपल छोड़ दे तो छोड़ दे, 17. जीभ का जला नहीं पनपता 18. आकाशदीप जलाए गए, 19. यदि वह धन्या या स्त्री अंग सँभाल कर (तुरंत) मिलती तो उस बाला का मान भंग होता, 20. (और) इसे परिरंभता (आलिंगनकर्ता) राजद्वार पर ही, 21. धृत-धारण किया, 22. (शब्दवेधी बाण चलाने का उल्लेख) सिंगी बाजे का शब्द सुनकर या अंदाजकर डोरी पर चढ़ उसका तीर उस शब्द को बेधते हुए (बेधने में) नहीं चूकता था, 23. चंद्रमा, 24. उसी के पास से मानो अमृतरस पिया, 25. अभिघटित किया बनाया, 26. पोहे हुए अच्छे मोती दिखाई पड़ते हैं, 27. कागज, 28. चल दीजिए, 29. अलग ही अलग, दूसरी ओर से, 30. मध्ये-मधि में, 31. जिमि-ज्यों, 32. प्रदक्षिणा, 33. हँसकर उस मोहित मुग्धा ने लज्जा से (मुँह पर का) पट चला दिया अर्थात् सरका लिया, 34. हृदय में, 35. फुरयो, स्फुरित हुआ, 36. रक्त, 37. साथ, 38. बिल्ली की सी ऑंखवाले, 39. मुँह गीदड़ और लोमड़ी के से, 40. हुंकार करते, 41. भट्ट भणंत पर यदि विश्वास किया जाए तो केदार महाराज जयचंद के कवि नहीं सुलतान शहाबुद्दीन गोरी के कविराज थे। 'शिवसिंहसरोज' में भाटों की उत्पत्ति के संबंध में यह विलक्षण कवित्त उध्दृत है
प्रथम विधाता ते प्रगट भए बंदीजन, पुनि पृथुयज्ञ तें प्रकास सरसात है।
माने सूत सौनक न, बाँचत पुरान रहे, जस को बखाने महासुख सरसात है।
चंद चौहान के, केदार गोरी साह जू के, गंग अकबर के बखाने गुन गात है।
काव्य कैसे माँस अजनास धान भाँटन को, लूटि धारै ताको खुरा खोज मिटि जात है।


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