अज्ञेय की कविता 'मुक्ति की कामना'

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मुक्ति की कामना से मुक्त रहती सी उस औरत का आकाश कहां है? ठीक-ठीक नहीं बता सकता कि मैं उस ‌औरत को कितना सही-सही जानता हूं जब कि उसे मां पुका...


मुक्ति की कामना से मुक्त रहती सी
उस औरत का आकाश कहां है?

ठीक-ठीक नहीं बता सकता
कि मैं उस ‌औरत को कितना सही-सही जानता हूं
जब कि उसे मां पुकारने के समय से ही
उसके साथ हूं।
आंचल पकड़ता
छातियों से चिपकता कभी
उचक कर पीठ पर उसकी गर्दन सूंघता।

उस औरत को प्यार करना
मेरे स्मृति पुंज में
एक खत्म न होने वाली अवधि की तरह है
बिना हड़बड़ाहट
एक कछुए के जीवन जैसी
उसे मां पुकारने से कहीं ज्यादा लंबी
कहीं ज्यादा गहरी
कहीं ज्यादा दूर, तटों से
जबकि मां पुकारने से कहीं ज्यादा लंबी
वक्फा-दक्फा / जैसे
कौंधे होती है पल दो पल की
अपने छौनों के लिए जब
आती है मादाएं उथले तटों पर
कभी- कभार
और अवसाद के फेनिल कुहरे में से झरता
मां जैसा उस का रूप
अस्पष्ट-अस्पष्ट
तो भी बहुत कुछ ठोस
सुच्चा होने का आश्वासन देता
कि जैसे वह तो है ही
धुन्ध के पार भी
आर भी.....


और उसकी आत्यंतिक इच्छाएं
उड़ती हैं
सपनों ही में
गिरती हैं धड़ाम से
सीढ़ियों से औंधे मुंह
पीठ पर भारी गट्ठर उठाए
कड़ी धरती पर
बार-बार / तुड़वा बैठती एड़ियाँ
पसलियाँ, और जाने क्या-क्या
उस औरत के मेरी माँ होने के इलावा
मुझे कई बार लगा
कि रही होगी उसकी अपनी एक अलग जिंदगी भी
कि जिस के बारे कैसे कहूं
जब कि उसे माँ कहता हूं
और ना कैसे कहूं
जबकि दिखावा करता हूं
कि तकरीबन उसे जानता हूं।

जैसे कि मान लीजिए उसका वह आकाश ही!
मेरे इलावा
चांदनी रातों में जिसे
कहां देख पाती होगी
उस की सूखी, लाल, बीमार आंखें
भटकती धरती पर ही मानो
टूट छूट कर गिरी हुई
और खोई हुई
छोटी-मोटी काम की जरूरी चीज कोई
खोजती हो!

या कि उसकी देह ही
जिसे वह अपना मानकर
अथवा न मान कर ही
सताती रही
सदा-सदा
मुंह अंधेरे दूध की बाल्टियाँ भर लाती
और कुचले जाते
भारी खुरों के नीचे उस के पैर
हां, उस की देह ही तो
बजका दी गई कितनी ही बार
दीवारों के साथ
कितने ही जानवरों की भूख मिटाती
घर और पशुशाला में
पता ही न चला होगा
मेरी माँ सी उस औरत को
कि कब घुसती चली गई अनाधिकार उस में
एक उन्मत्त पुरूष की शातिर महत्वाकाँक्षा!

कि भाग निकलने का
जब भी आया होगा खयाल
अनायास
भारी लगने लगे होंगे उसे अपने पैर!
हां, ठीक-ठीक बता सकता हूं
मैं ही
कि आज भी
उसे नहीं मालूम है ठीक-ठीक
कि बांध दी गई थी वह
मेरे उसे माँ कहने से बहुत पहले
मेरे उसे प्यार करने से भी बहुत पहले
मेरे जैसे अद्श्य खूंटो से
मेरे पिता की दुधारू गाय के ठीक बगल में
निपट दोहन के लिए

यों कहने को मैं
ऐसा भी कह सकता हूं
उस औरत की काल्पनिक मुक्ति पर / रो-रो कर
कि क्या शक कि वह जीती चली आई
पोंछती
बदरंग हो चले दामन से
कैसी‍-कैसी वाहियात गंदगियाँ
और चमकाती
कैसे गलीज अंधियारे
इस साफ शफ्फाक घर जैसी इमारत के
जिसे वह अपना मान कर
अथवा न मान कर ही
कि क्या था
कि पोंछ नहीं पाई
अपनी चौखट से बाहर बिखरा
उसका अपना ही आकाश
पूर्णिमा की चकाचौंध में भी
जो रहा धुंधला ही
आंखें उसकी
मानो सजल थीं
उस औरत की चाँदनी रातों को
क्या था कि सदा
लगा रहा ग्रहण?

क्या उसका पुत्र?

और उसके पुत्र के सिवा
उस की सूखी आंखों के
तमाम तारे
क्यों न थे निर्वाण के पक्ष में?

उस औरत की मुक्ति के?

उस मुक्ति सी वायवी अवधारण के?
उस मुक्ति की कामना से मुक्त रहती सी
अपनी मां जैसी उस औरत के लिए
जार-जार रोने से पहले
मंडराती है मेरे मस्तिष्क विवर में चकिल
उस मुक्ति की (अव) धारणा में लोट-पोट
अपनी, अलग-अलग डिजाईनर
मुक्तिकामी इच्छाएँ ओढ़े हुए
इस मदहोश भूखंड की
'उदात्त' महिलाएँ!

मीरा तो नहीं
तसलीमा भी शायद
पर हां, कह सकते हैं
इंदिरा, बनेजीर
टेरेसा, महा श्वेता
और अभी-अभी अरूंधति
बिल्कुल अभी ही
जैसे तमाम इनामी औरतें
पुरस्कृत बुकर पुलित्जर
प्रश्नवाचकों की तरह
शोभा डे
किरन बेदी
किरन खैर
किरन देसाई
किरन मेरी मां सी उस औरत की आंखों में
कहां?
जो सजल रह-रह कर / सदा
जो जल रही, सूखती, लाल-लाल / कहां
उसका दर्दनिवारक सुकून?

क्या तुम बता सकते हो ठीक-ठीक
कि बचती हुई बाल-बाल
विक्षेप से
भयभीत और उद्वेलित िस
भीषण समय में अपने पुत्र के इलावा
क्या कुछ ढ़ोती हुई पीठ पर
चुपचाप
सिमरती वज्रगुरू
अपने पुत्र के इलावा
इस सारी धरती की बेहतरी के लिए
जो कूर हुई बार-बार उसी के लिए
कहां है
उस औरत का आकाश?
जिसे अपना मान कर
अथवा न मान कर ही
मुक्त हो सके वह!


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