हिन्दी नाटकों में डॉ. शंकर शेष का योगदान

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हिन्दी नाटकों में डॉ. शंकर शेष का योगदान नाटक रंगमंच सापेक्ष कला है। जहाँ अन्य विधाओं की सार्थकता मात्र शब्द के माध्यम से ही अपने कथ्य को संप्रेषित करने में है, वहीं नाटक की सार्थकता रंगमंच के माध्यम से नाटककार के सम्प्रेष्य को मूर्ति करने में है।

हिन्दी नाटकों में डॉ. शंकर शेष का योगदान

नाटक रंगमंच सापेक्ष कला है। जहाँ अन्य विधाओं की सार्थकता मात्र शब्द के माध्यम से ही अपने कथ्य को संप्रेषित करने में है, वहीं नाटक की सार्थकता रंगमंच के माध्यम से नाटककार के सम्प्रेष्य को मूर्ति करने में है। दृश्य और श्रव्य का समन्वित रूप होने के कारण नाटक अन्य विधाओं की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ माना  गया है।आधुनिक हिन्दी नाट्य सृष्टि के डॉ. शंकर शेष सशक्त हस्ताक्षर है। उन्होंने नाटकों का केवल सृजन ही नहीं किया  बल्कि नाटकों को हर  तरह से प्रतिष्ठित करने का प्रयास भी किया  है। नाट्यलेखन, निर्देशन तथा मंचन आदि सभी क्षेत्रों में उनका मौलिक योगदान रहा है।  इस संदर्भ में डॉ. सर्जेराव नारायणराव जाधव जी के विचार इस प्रकार है- “डॉ. शंकर शेष ने जयशंकर प्रसाद की तरह प्राचीन कथाबीजों के नये अन्वय को प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।”1 
स्वातंत्र्योत्तर युगीन प्रयोगशील नाटककार  डॉ. धर्मवीर भारती, लक्ष्मीनारायण लाल, विनोद रस्तोगी, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, जगदीश चन्द्र माथुर, मुद्राराक्षस, मोहन राकेश, दयाप्रकाश सिन्हा, ज्ञानदेव, अग्निहोत्री आदि की श्रेणी में डॉ. शंकर शेष के रंगमंचीय कार्य भी रहा।
मोहन राकेश के बाद कथ्य और शिल्प की दृष्टि से नये प्रयोग करने वाले नाटककार हैं- सुरेन्द्र वर्मा, मणि मधुकर,
डॉ. शंकर शेष
डॉ. शंकर शेष
दयाप्रकाश सिन्हा, मुद्राराक्षस, लक्ष्मीनारायण लाल तथा  डॉ. शंकर शेष आदि। डॉ. शंकर शेष के नाटकों में मानवीय अनुभूतियों की तीव्र वेदना दिखाई देती है। उन्होंने नाटकों में आधुनिक, सामाजिक एवं धार्मिक समस्याओं को स्पष्ट किया है साथ ही उन्होंने स्वातंत्र्योत्तर काल की समस्त  उथल-पुथल को अपने नाटकों का विषय बनाने का प्रयास किया है। डॉ. शंकर शेष का नाट्य-शिल्प जहाँ तक परंपरागत  भारतीय नाट्य शिल्प के साथ अन्त: स्थूल है, वहाँ उन्होंने आधुनिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर उसे सर्वथा नया स्वरूप, नया आयाम और नया रंग भी प्रदान कर दिया है। उनका नाट्य-शिल्प आधुनिक रंग-बोधों से संयत एवं आप्लावित है।
नाटककार शंकर शेष का उदय समकालीन रंगान्दोलन के प्रारंभिक परिदृश्य में हुआ। डॉ. शेष की उत्कृष्ट रंग-चेतना  युक्त रंगदृष्टि ने समकालीन हिन्दी नाटक तथा रंगमंच को विकसित किया विषय की विविधता उनके नाटकों की मुख्य विशेषता रही। जहाँ उन्होंने ऐतिहासिक, पौराणिक कथानकों के माध्यम से वर्तमान संदर्भों की नवीन व्याख्या की, वहीं सामाजिक-राजनैतिक नाटकों में समकालीन व्यक्ति एवं समाज के जीवन के विविध पहलुओं को अपने नाटकों का कथ्य बनाया।– “एक साहित्यकार के रूप में शेष जी ने नाटक, उपन्यास, कहानी, एकांकी अनुदित रचनाओं के रुप में अनेक उत्कृष्ट ग्रंथ लिखें।  जिसमें जीवन-जगत् के विविध पहलुओं एवं समस्याओं को चित्रित किया।”1 
शेष जी रंगमंच से भी सक्रिय रूप में जुड़े रहे। उन्होंने एक-दो नाटकों का निर्देशन भी किया। अभिनय में भी रूचि रही। भोपाल की नाट्य संस्था `नाट्य सुधा’ से उन्हें विशेष लगाव रहा। एक पटकथा-लेखक के रूप में उन्होंने पर्याप्त ख्याति प्राप्त की। उन्होंने `दूरियाँ’ और `घरौंदा’ के लिए पटकथाएँ लिखीं। `सोलहवाँ सावन’ के संवाद शेष जी ने ही लिखे थे। 
शेष जी ने मराठी की कई उत्कृष्ट रचनाओं को हिन्दी में अनुवादित किया। मराठी और हिन्दी दोनों भाषाओं पर उनका समान अधिकार रहा है। मराठी के नाटक `दूरचे दिवे’ का `दूर के दीप’ नाम से अनुवाद बहुत चर्चित रहा। श्री महेश एळकुंचवार के नाटक `गार्बो’ का `एक और गार्बो’ शीर्षक से अनुवाद किया। श्री अच्युत वझे के नाटक `चल रे भोपाळया टुणूक-टुणूक’ का `चल मेरे कद्दू ठुम्मक-ठुम्मक’ शीर्षक से नाट्यानुवाद किया। `एक और गार्बों’ के अनुवाद पर डॉ. सुरेश गौतम एवं डॉ. वीणा गौतम की टिप्पणी इस प्रकार है- “डॉ. शेष ने नाटकों का अनुवाद इतनी कुशलता से किया है कि वह भावानुवाद प्रतीत होता है। मराठी के मुहावरों और वाक्य-क्रियाओं तक को हिन्दी में ज्यों का त्यों अनूदित कर  दिया है। हिन्दी `गार्बो’ पढ़कर  यह महसूस ही नहीं होता कि यह मराठी का रूपान्तर है।”1 
शेष जी के रचनाकार व्यक्तित्व के कई रूप हैं, वे कवि भी रहे, कहानीकार, उपन्यासकार, अनुसंधानकर्ता, अनुवादक और  सर्वोपरि एक उत्कृष्ट नाटककार के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त की। 
डॉ. शंकर शेष के द्वारा चित्रित नाटक इस प्रकार है- नाट्य साहित्य-मूर्तिकार (1955), रत्नगर्भा (1956), नई सभ्यता नये नमूने (1956), बेटों वाला बाप (1958), अप्राप्य, तिल का ताड़ (1958), बिन बाती के दीप (1968), बाढ़ का पानी (1968), बंधन अपने-अपने (1969), खजुराहो का शिल्पी (1970), फन्दी (1971), एक और द्रोणाचार्य(1971), कालजयी (1973), घरौंदा (1974), अरे! मायावी सरोवर (1974), रक्तबीज़ (1976), राक्षस (1977), पोस्टर (1977), चेहरे (1978), कोमल गांधार (1979), आधी रात के बाद (1981)| 
एकांकी नाटक- विवाह मंड़प (1957), हिन्दी का भूत (1958), त्रिभुज का चौथाकोण (1971), एक प्याला कॉफी (1979), अजायबघर (1981), पुलिया, सोपकेस|
बाल नाटक- दर्द का इलाज (1973), मिठाई की चोरी।
अनुदित नाटक: श्री वि.वा. शिरावाडकर के मराठी में नाटक `दूरचे दिवे’ का `दूर के दीप (1959) नाम से, श्री महेश एळकुंचवार के नाटक `गार्बो’ का `एक और गार्बो’ (1972) नाम से, श्री अच्युत वझे के `चल रे भोपळ्या टुणूक-टुणूक’ का `चल मेरे कद्दू ठुम्मक-ठुम्मक’ (1973), शीर्षक से अनुवाद, श्री माधव साखरदावड़े के नाटक `चन्दुशाला’ का `पंचतंत्र’, (1981)  नाम से अनुवाद किया।
डॉ. शंकर शेष के नाटकों की भाषा सहज, सरल एवं संप्रेषणीय है। उन्होंने नाटक के विषय के अनुसार भाषा का प्रयोग किया है। वे कहीं यथार्थपरक  भाषा का प्रयोग करते हैं, तो कहीं बोलचाल की नागर भाषा का प्रयोग करते हैं। कहीं काव्यात्मकता का प्रयोग करते हैं, तो कहीं संस्कृतनिष्ठता का प्रयोग करते हैं, तो कही अंग्रेज़ी का प्रयोग करते हैं। लेकिन उनकी भाषा के कारण पाठक एवं दर्शकों के सामने अर्थ एवं भाव सम्प्रेषण में कोई कठिनाई नहीं आती है।
डॉ. शंकर शेष ने अभिनेयता की दृष्टि से ही नाटकों का सृजन किया है।  उनके लगभग सभी नाटक अभिनेयता की  दृष्टि से सफल हुए है। किसी भी अभिनेय नाटक के लिए कथावस्तु सरल तथा असंक्षिप्त, पात्रों की संख्या कम तथा सभी पात्रों को अभिनय करने का उचित अवसर, संवाद संक्षिप्त, सरल एवं रोचक रंगमंच सज्जा के लिए अंकों तथा दृश्यों की योजना व्यक्तित्व आदि गुणों की आवश्यकता होती है। यह सभी गुण डॉ. शंकर सेष के नाटकों में युक्त होने के कारण उनके सभी  नाटक अभिनेय हैं। “डॉ. शंकर शेष के नाटकों की आत्मा भारतीय है। वे युगबोध के नाटककार है। युगबोध के नाटककार होने के कारण उन्हें नाटकों में गहन मानवीय अनुभूतियों की तीव्र वेदना एवं कसमसाहट दिखाई देती है।”1 
नाट्य साहित्य:  
मूर्तिकार (1955)- शंकर शेष की प्रथम नाट्य रचना `मूर्तिकार’ में जीवन की विडम्बना तथा यथार्थ को प्रस्तुत किया है। यह नाट्यकृति स्त्री-पुरुष के बीच  लगाव और तनाव का दस्तावेज तथा पारिवारिक समस्याओं की गाथा है। इसमें नाटककार ने मध्यवर्गीय परिवार की संघर्षपूर्ण कहानी को प्रस्तुत किया है।
रत्नगर्भा (1956): इस नाटक में स्त्री और पुरुष (पति-पत्नी) के प्रेम स्वार्थ और महत्वाकांक्षाओं के कारण संबंधों में होने वाले विघटन को चित्रित किया है। 
`रत्नगर्भा’ में यह स्पष्ट किया है कि प्रेम में मन की अपेक्षा तन को ही अधिक महत्व दिया जा रहा है।
नई सभ्यता नये नमूने (1956)- नाटककार ने इस नाटक में मिथक का प्रयोग किया है। पौराणिक मिथ के अनुसार कृष्ण सर्वज्ञ, महाशक्तिशाली, अन्याय तथा पापियों के संहारक हैं। इस नाटक के द्वारा समाज में फैले भाई-भतीजावाद, भ्रष्टाचार आदि विसंगतियों को दर्शाने का प्रयत्न किया गया है।
तिल का ताड़ (1958)- प्रस्तुत नाटक हास्य-व्यंग्य शैली में लिखा गया है। जीवन में कुछ स्थितियाँ ऐसी आ जाती हैं, जिसमें व्यक्ति स्वयं द्वारा निर्मित स्थितियों में बुरी तरह  उलझ जाता है। महानगरीय जीवन में आवास की समस्या को केन्द्र में रखते हुए नाटककार ने बड़े ही नाटकीय ढ़ंग से इसकी कथा रची है। 
 बिन बाती के दीप (1968)- इस नाटक के माध्यम से शाश्वत मानव मूल्यों को स्थापित करने का प्रयत्न किया है। पति-पत्नी के संबंधों में सच्चे प्रेम एवं विश्वास के महत्व को उजागर करना तथा अतिशय महत्वाकांक्षाओं और स्वार्थ को नकारना नाटककार का मुख्य लक्ष्य रहा है।
बाढ़ का पानी (1968)- डॉ. शंकर शेष ने यह नाटक `चंदन के दीप’ नाम से लिखा है। इस पर सात हजार रुपये का पुरस्कार मध्यप्रदेश सरकार द्वारा  प्राप्त हुआ। नाटककार ने गांधीवाद से प्रभावित होकर यह नाटक लिखा है। नाटक के माध्यम से समाज में व्याप्त घातक जातिभेद, छुआछूत एवं तज्जनीय समस्याओं तथा उनका संभाव्य समाधान प्रस्तुत किया है। 
बंधन अपने-अपने (1969)- डॉ. शंकर शेष की इस नाट्यकृति पर मध्यप्रदेश सरकार ने ग्यारह सौ रुपये का पुरस्कार प्रदान किया है। नाटककार ने इस नाटक के माध्यम से व्यक्ति जीवन में अतिशय महत्वाकांक्षाओं के कारण उत्पन्न रिक्तताबोध, अवसाद और एकाकीपन की विडम्बना को उभारा है।
खजुराहो का शिल्पी (1970)- डॉ. शंकर शेष के लम्बे चिन्तन और मनन की निष्पत्ति है- `खजुराहो का शिल्पी’। इस नाटक में नाटककार ने प्राचीन काल से संसार में होने वाले `माया’ और `मोक्ष’ के संघर्ष को प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।
फन्दी (1971)- इस नाटक के माध्यम से नाटककार ने व्यक्ति, समाज और कानून के संघर्ष को उभारा है। इस नाटक के  माध्यम से वर्तमान परिवर्तित परिस्थितियों में संवैधानिक नियमों की अनुपयुक्तता और नवीन मानदण्डों की स्थापना की ओर ध्यान आकर्षित करना नाटककार का मुख्य उद्देश्य है।
एक और द्रोणाचार्य(1971)- इस नाटक के द्वारा वर्तमान शिक्षा जगत् में व्याप्त भ्रष्टाचार, पक्षपात, राजनीतिक घुसपैठ तथा आर्थिक एवं सामाजिक दबावों के चलते निम्न मध्यवर्गीय व्यक्ति के असहाय, बेबस चरित्र को उद्घाटित करना नाटककार का  मुख्य लक्ष्य है।
कालजयी (1973)- नाटक में स्वेच्छाचारी शासक की कुत्सित वृत्तियों के शाश्वत रूप को उद्घाटित किया गया है। इस नाटक में नाटककार ने वर्तमान शासन एवं शासक की वृत्तियों को बड़ी सशक्तता से उभारता है।
घरौंदा (1974)- महानगरीय जीवन में आवास की समस्या को केन्द्र में रखते हुए निम्न मध्यवर्गीय व्यक्ति की महत्वाकांक्षाओं तथा उनके वैयक्तिक संबंधों को चित्रित करना नाटक का मुख्य उद्देश्य रहा है। इस नाटक में निम्न मध्यवर्गीय व्यक्ति के प्रेम संबंध, आर्थिक विवशता तथा महानगरीय जीवन में आवास की समस्या को केन्द्र में रखते हुए  नाटक की रचना की है।
अरे! मायावी सरोवर (1974)- पौराणिक मिथक पर आधारित `अरे! मायावी सरोवर’ नौटंकी एवं कीर्तन शैली में विरचित है। इस नाटक में प्रतीकात्मक पात्रों द्वारा सामाजिक विद्रूपताओं को उजागर किया गया है।  नाटक के माध्यम से नाटककार स्त्री और पुरुष दोनों की समानता को स्थापित करने का प्रयत्न किया है। 
रक्तबीज़ (1976)- `रक्तबीज’ एक पौराणिक पात्र है। जिसका प्रतीकात्मक प्रयोग महानगरों में रहने वाले   मध्यवर्गीय व्यक्तियों की मनोवृत्तियों को उद्घाटित करने में हुआ है। `रक्तबीज’ एक राक्षस था, जिसकी यह विशेषता थी कि उसके रक्त की एक बूँद से एक नए रक्तबीज का जन्म हो जाता था। मनुष्य ने अपनी प्रसिद्धी की चाह में दूसरों का इस्तेमाल करते हैं। मनुष्य की इसी मनोवृत्ति पर नाटककार ने चिन्ता व्यक्त किया है। 
राक्षस (1977)- `राक्षस’ महाभारतीय मिथक पर आधारित नाटक है। महाभारत के प्रसिद्ध `बकासुर’ राक्षस के मिथ से अब समाज में मौजूद `आतंक’, `एटम बम’, `सत्ताधीश’ और `जातिवाद’ आदि राक्षस को जोड़कर इस बहुत रूप  राक्षस द्वारा निर्मित संस्कृति का नष्ट को हमको दिखाने का प्रयास किया है।
पोस्टर (1977)-  डॉ. शेष ने इस नाटक के माध्यम से व्यक्ति जीवन में अशिक्षा और अंध श्रद्धा को दूर करने का संदेश दिया है।
चेहरे (1978)- समाज का प्रत्येक व्यक्ति अपने घिनौने और खूंखार चेहरों को छिपाने के लिए बनावटी मुखौटे पहनता है। नाटककार ने इसी मुखौटे के पीछे असली चेहरे को दिखाने का प्रयास किया है।
कोमल गांधार (1979)- यह पौराणिक मिथक पर आधारित महाभारतीय विषयवस्तु को वहन करने वाला नाटक है। नाटक में राजनीतिक हितों की पूर्ति तथा व्यक्तिगत स्वार्थों के लिए नारी पर किये जाने वाले अत्याचार और शोषण करने की चिरन्तन परंपरा पर प्रहार किया गया है। 
आधी रात के बाद (1981)- इस नाटक के माध्यम से वर्तमान समाज के तथाकथित सभ्य और संभ्रान्त कहे जाने वाले सफेदपोश लोगों के कुकृत्यों का पर्दाफाश किया गया है। नाटक के माध्यम से कानून, जज, अदालत, पुलिस एवं प्रशासन तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार तथा अनैतिक आचरण को एक साधारण  चोर के द्वारा उघाड़ा गया है।
संदर्भ
1.  डॉ. शंकर शेष का नाटक, डॉ.  सर्जेराव नारायणराव जाधव, पृ.सं.: 9
2.  समकालीन रंगचेतना और नाटककार शंकर शेष,  डॉ. दर्शन पाण्डेय, पृ.सं.: 86
3. राजपथ से जनपथ नटशिल्पी शंकरशेष, डॉ. सुरेश गौतम, डॉ. वीणा गौतम, पृ.सं.: 28
4.  डॉ. शंकर शेष का नाटक, डॉ. सर्जेराव नारायणराव जाधव, पृ.सं.: 10
                                                       
नाम   :   के.महालक्ष्मी
उमर   :   ३६ 
पता    :  १४ मानसरोवर अपार्टमेंट 
          बालाजी नगर
          पाडी कुप्पम रोड 
          चेन्नई - ४०
          अन्ना नगर वेस्ट 

व्यवसाय  : अध्यापिका चेन्नई पब्लिक स्कूल
          पीएच.डी, शोधार्थिनी दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा 




        

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हिन्दी नाटकों में डॉ. शंकर शेष का योगदान नाटक रंगमंच सापेक्ष कला है। जहाँ अन्य विधाओं की सार्थकता मात्र शब्द के माध्यम से ही अपने कथ्य को संप्रेषित करने में है, वहीं नाटक की सार्थकता रंगमंच के माध्यम से नाटककार के सम्प्रेष्य को मूर्ति करने में है।
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