तुलसीदास के पद Tulsidas Ke Pad

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तुलसीदास के पद - तुलसीदास 
 Tulsidas Ke Pad


गोस्वामी तुलसीदास, जिन्हें हिंदी साहित्य का सूर्य  कहा जाता है,  भक्ति  धारा  के  सर्वश्रेष्ठ  कवि  माने जाते हैं।  रामचरितमानस,  विनय पत्रिका,  गीतावली,  कवितावली  जैसे  अपनी  अद्भुत  रचनाओं  के  माध्यम  से  उन्होंने  भक्ति  भाव  को  नई  ऊंचाइयों  तक  पहुंचाया। तुलसीदास  जी  की  राम  भक्ति  निःस्वार्थ  ,  अगाध  और  मर्यादा  पुरुषोत्तम  राम  के  प्रति  पूर्ण  समर्पण  से  भरी  है।

तुलसीदास  जी  के  लिए  राम  केवल  ईश्वर  ही  नहीं,  बल्कि  जीवन  के  आदर्श  भी  हैं।  राम  का  चरित्र  सत्य,  नीति,  करुणा  और  सर्वगुणसंपन्नता  का  प्रतिबिंब  है।  तुलसीदास  जी  राम  के  इन  गुणों  को  आदर्श  मानकर  अपने  जीवन  को  उनके  आदर्शों  के  अनुरूप  ढालने  का  प्रयास  करते  हैं।

तुलसीदास  जी  की  राम  भक्ति  निष्काम  है  ।  वे  किसी  फल  की  इच्छा  नहीं  करते  ,  बल्कि  केवल  राम  की  भक्ति  में  लीन  रहना  चाहते  हैं।  उनके  लिए  राम  सर्वस्व  हैं  ।

तुलसीदास  जी  की  राम  भक्ति  व्यापक  और  सर्वग्राही  है  ।  यह  सभी  वर्गों  के  लोगों  के  लिए  है  ।  शिक्षित  हो  या  अनपढ़  ,  शहरी  हो  या  ग्रामीण  ,  सभी  तुलसीदास  जी  की  राम  भक्ति  से  प्रेरित  हो  सकते  हैं।


तुलसीदास के पद की व्याख्या


जाऊँ कहाँ तजि चरन तुम्हारे ।
काको नाम पतित पावन जग, केहि अति दीन पियारे ।
कौनहुँ देव बड़ाइ विरद हित, हठि हठि अधम उधारे ।
खग मृग व्याध पषान विटप जड़, यवन कवन सुर तारे ।
देव, दनुज, मुनि, नाग, मनुज, सब माया-विवश बिचारे ।
तिनके हाथ दास ‘तुलसी’ प्रभु, कहा अपुनपौ हारे ।

व्याख्या - प्रस्तुत पद में तुलसीदास जी ने भगवान् श्रीराम की उदारता ,दयालुता तथा भक्त वत्सलता का वर्णन करते हुए अन्य देवों से उन्हें महान कहा है और उन्ही की उपासना में अपनी आस्था व्यक्त की है। इसमें तुलसीदास का श्रीराम के प्रति आत्म समर्पण का भाव हुआ है। भगवान् श्रीराम को सम्बोधित करते हुए तुलसीदास जी कहते हैं - हे भगवान् ! आपके चरणों को त्यागकर मैं कहाँ जाऊँ ?संसार में अन्य किसका पतित पावन है जिसको दीन अत्यंत प्रिय हो ?अर्थात पतितों का उद्धार करने वाले तथा दीनों को गले लगाने वाले केवल आप ही हैं अतः आपको त्यागकर अन्यत्र जाना सर्वथा मूर्खता होगी।
 
अन्य किसी देवता ने अपने यश के लिए ढूंढ - ढूंढ पतितों का उद्धार किया है ? किस देवता ने पक्षी ,मृग ,व्याध ,पत्थर तथा वृक्ष आदि जड़ जीवों का भी उद्धार किया है ? अर्थात संसार के किसी अन्य देवता ने जड़ तथा चेतन सभी को बिना किसी किसी भेद भाव के ह्रदय से नहीं लगाया ? हे राम ! देवता ,दैत्य ,मुनि ,सर्प तथा मनुष्य सभी माया के वशीभूत हैं। ऐसी िष्ठति में इनके हाथ में अपने हो डालकर यह आपका दास तुलसी अपने अस्तित्व को नष्ट नहीं करना चाहता अर्थात हे नाथ ! इस दिन तुलसीदास को कृपया आप ही अपनी शरण में ले लें।  इस पद में व्याध ,महर्षि बाल्मीकि के लिए पाषाण ,अहिल्या के लिए विटप ,यमलार्जुन के लिए पक्षी ,जटायु के लिए कहा गया है।  

२. दूलह श्री रघुनाथ बने दुलही सिय सुंदर मंदिर माही।
गावति गीत सबै मिलि सुन्दरि वेद जुवा जुरि विप्र पढ़ाही।
राम को रूप निहारति जानकी कंगन के नग की परछाहीं।
यातै सबै सुधि भूलि गई कर टेकि रही पल टारति नाहीं।

व्याख्या - प्रस्तुत पद गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित कवितावली के बालकाण्ड से लिया गया है।  इसमें कवि ने राम के विवाह का वर्णन किया है।  कवि का कहना है कि श्रीरामचन्द्र दूल्हा बने हुए हैं और सीता ही दुल्हन बही हुई है। विवाह जनक जी के महल में हो रहा है। महल में उत्सव का माहौल है।  युवा भाह्माण वेद की ऋचाएँ गए रहे हैं। इस प्रकार उच्चारण और विवाह के गीत से सारा महल गुन्जयित है।
  
सीता जी ने एक नगदार कंगन पहन रखा है।  इसमें प्रभु श्रीराम का प्रतिविम्ब दिखाई पड़ रहा है।  इसमें सीता जी बड़े ध्यान से राम जी का प्रतिविम्ब देख रही है।एक पल के लिए भी उनकी नज़र उस नग से दूर नहीं जाती है।  


३. जाऊँ कहाँ तजि चरन तुम्हारे ।
काको नाम पतित पावन जग, केहि अति दीन पियारे ।
जाऊँ कहाँ तजि चरन तुम्हारे ।
कौनहुँ देव बड़ाइ विरद हित, हठि हठि अधम उधारे ।
जाऊँ कहाँ तजि चरन तुम्हारे ।
खग मृग व्याध पषान विटप जड़, यवन कवन सुर तारे ।
जाऊँ कहाँ तजि चरन तुम्हारे ।
देव, दनुज, मुनि, नाग, मनुज, सब माया-विवश बिचारे ।
तिनके हाथ दास ‘तुलसी’ प्रभु, कहा अपुनपौ हारे ।
जाऊँ कहाँ तजि चरन तुम्हारे ।

व्याख्या - प्रस्तुत पद गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा लिखित कवितावली के अयोध्याकाण्ड से ली गयी है।  इस पद में कवि श्री राम के वनवास समय का वर्णन किया गया है।  कवि का कहना है कि जिस प्रकार एक तोता अपने पुराने पंखों का त्याग पर नए धारण करता है। उसी प्रकार प्रभु श्रीराम जी ने अपने राजशी वस्त्रों और आभूषणों का त्याग कर सन्यासी का वेश धारण कर लिया है। इस प्रकार जैसे पानी के ऊपर काई की परत हट जाने पर स्वक्ष जल दिखाई पड़ता है ,उसी प्रकार प्रभु श्रीराम का सौंदर्य और भी निखार आया है।  साथ ही श्रीराम के साथ सीता जी और लक्ष्मण जी साथ जा रहे हैं। उन्हें महल और राजसी सुखों की तनिक भी चिंता नहीं है।  श्री राम ने राजसी बैभव को त्यागने में जरा भी आशक्ति नहीं दिखाई। अतः प्रभु मोह -माया के बंधनों से मुक्त अनासक्त है।  


तुलसीदास की भक्ति भावना


संसार में जब -जब अधर्म बढ़ता है ,तब  तब प्रभु अनेक रूप धारण करके दुष्टों का संहार करते हैं और संसार में पुनः धर्म की ज्योति जलाते हैं। तुलसी के आराध्य राम ऐसे ही है ,जो हर संकट में भक्त का साथ देते हैं और उसके कष्टों को दूर करते हैं। कवि रत्न तुलसीदास ने निराश हिन्दू जनता को श्री राम का उपयुक्त अमर सन्देश देकर ही तो सान्तवना प्रदान की थी।उनके राम लोकरंजक के साथ साथ लोकरक्षक भी है। जो हर पल हर क्षण भक्त की रक्षा करते हैं।

तुलसीदास की भक्ति भावना - तुलसीदास की भक्ति भावना चातक जैसी है ,जिसे केवल एक राम का ही बल है और उसी की आस और विश्वास है -एक भरोसो ,एक बल,एक आस विश्वास। एक राम घ्यांश्याम ही ,चातक तुलसीदास। 

तुलसीदास की भक्ति दास्य भाव की है। उन्होंने स्वयं को श्रीराम का दस माना है और उनसे अनेक प्रकार की अनुनय -विनय ही है कि वे किसी प्रकार उनका उद्धार कर दे. उन्होंने श्रीराम के समक्ष अपनी दीनता ,लघुता और विनम्रता को व्यक्त किया है। राम के सामने वे क्या कहें ? वे तो उनके ह्रदय की सब बात जानते ही है। उनके मन की मूर्खता उनसे छिपी कहा हैं।

कहँ लौं कहौं कुचाल कृपानिधि! जानत हौ गति जन की । तुलसिदास प्रभु हरहु दुसह दुख, करहु लाज निज पन की ॥

प्रभु के सामने तुलसीदास छोटे -छोटे और खोटे ही है ,प्रभु की महानता क्या किसी से छिपी है। इसीलिए वे कहते हैं -
राम सो बड़ो है कौन ,मोसो कौन छोटो। राम तो खरो हैं कौन ,मोसो कौन खोटो।
तुलसीदास का मन श्री राम में इतना रमा है कि उन्हें तो सीता राम सारे संसार में ही दिखाई पड़ते हैं। इसीलिए वे बारम्बार उन्हें प्रमाण करते हैं - सिया राममय सब जग जानी। करहुँ प्रणाम जोरि जुग पानी।

जिसे सीता राम प्रिय नहीं ,उसे तुलसीदास एकदम छोड़ देना चाहते हैं ,चाहे वह कितना ही स्नेही क्यों न हो -
"जाके प्रिय न राम बैदेही। ताजिये ताहि कोटि बैरी सम ,जदपि परम स्नेही।"

तुलसीदास की इस अनन्य भक्ति में नवधा भक्ति स्पष्ट देखि जा सकती है।  नवधा भक्ति के नौ तत्व है - श्रवण ,कीर्तन ,स्मरण ,अर्चना ,वंदना ,सांख्य ,दास्य और आत्म निवेदन। रामचरितमानस और विनयपत्रिका इस प्रकार के भक्ति के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। विनय पत्रिका तो समग्र रूप से भक्ति का ही काव्य है।

तुलसीदास में दास्य भाव के साथ कहीं कहीं सख्य भाव की भक्ति भी मिलती है।  वे अपने भ्रम को दूर करने की प्रार्थना करते हुए कहते हैं - हे हरि ! फस न हरहु भ्रम भारी ? जदपि मृषा सत्य भासे जब लगी नहिं कृपा तुम्हारी।

अंत में तुलसीदास यही प्राण करते हैं कि अब वे अपने जीवन को सांसारिक विषय वासनाओं में नष्ट नहीं करेंगे और निरंतर अपने मन को प्रभु चरणों में लगाएंगे -
अब लौ नसानी अब न नासेहो। राम कृपा भवनिसा सिरानी जागे फिर न दसहुँ।

भक्ति की विशेषताएँ - तुलसीदास श्रीराम के अनन्य उपासक हैं ,परन्तु कहीं भी उन्होंने किसी दुसरे देवी -देवताओं की निंदा नहीं की।  उन्होंने श्री राम चरितमानस में सभी देवी देवताओं की स्तुति ही है ,फिर भी उन्होंने राम को सबसे बड़ा समझकर उनके ही चरणों में श्रद्धा सुमन अर्पित किये हैं।

तुलसीदास की भक्ति की दूसरी विशेषता यह है कि उन्होंने सगुन के खदान के साथ निर्गुण ब्रह्म का खंडन नहीं किया ,न ही उसकी खिल्ली उड़ाई ,वरन उन्होंने तो सगुन -निर्गुण का समनवय स्थापित करते हुए कहा है कि ज्ञान और भक्ति दोनों ही संसार के किस्तों को दूर करने वाले हैं - ज्ञानहिं भगतिहिं नहिं कछु भेदा। उभय हरहिं भव - संभव खेदा।
  
तुलसीदास ने ज्ञान को कठिन बताकर भक्ति की स्थापना ही है। भक्ति में तुलसीदास की दास्य भक्ति प्रमुख है। यत्र - तत्र सख्य भाव की भक्ति भी मिलती है। नवधा भक्ति के सभी तत्व इनके काव्य में उपलब्ध हैं।  

निष्कर्ष - भक्ति के रूप में तुलसीदास ने अपने ह्रदय की ग्लानि ,दैन्य ,विरक्ति ,निराशा ,कुंठा ,पीड़ा ,एकनिष्ठा और विश्वास का सुन्दर परिचय दिया है।  उनका भक्ति -भाव उनके अंतकरण का इतिहास है। विनय पत्रिका में उनका सर्वोत्कृष्ट भक्त रूप मुखर हुआ है।आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है - "भक्ति रस का पूर्ण परिपाक जैसा विनयपत्रिका में देखा जाता है ,वैसा अन्यंत्र नहीं।तुलसीदास के ह्रदय से ऐसे निर्मल शब्द स्त्रोत निकलते हैं ,जिनमें अवगाहन करने से मन की मेल कटती है और अत्यंत्र पवित्र प्रफुल्ल्ता आती है।"


तुलसीदास के पद पाठ के प्रश्न उत्तर


प्र। किन उदाहरणों द्वारा कवि ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि प्रभु दीनों का उद्धार करने वाले हैं, समझाकर लिखें। 

उत्तर- तुलसीदास जी प्रभु राम के अनन्य भक्त हैं। पृथ्वी जब कलियुग के घोर पापों से हाहाकार कर उठी थी तब इन घोर पापों से पृथ्वी के मानव की रक्षा हेतु तुलसीदास जी ने विनय पत्रिका द्वारा श्रीराम से प्रार्थना की है। विनय पत्रिका में तुलसीदास के भक्त रूप में दर्शन मिलते हैं। वे स्वयं को प्रभु का दास मानते हैं और वे श्रीरामचन्द्र जी से यह निवेदन करते हैं। वे कहते हैं कि प्रभु मुझे आपके सिवाय कोई अवलम्ब नहीं है। आपने तो अनेक पतितों का उद्धार किया है। आप तो बिना विचार किए ही पापियों को तार देते हैं। कवि कहता है कि प्रभु आप तो बड़े ही दयालु हैं-
 
कौन देव बराई बिरद हित, हठि-हठि अधम उधारे। 
खग, मृग, व्याध, पषान, विटप जड़, जवन- कवन सुर तारे ।

कवि ने इन पंक्तियों में प्रभु की उदारता का बखान करते हुए कहा है कि आपने पक्षी, हिरण, बहेलिया, पत्थर, वृक्ष, कालयवन आदि अनेक लोगों का उद्धार किया है। कवि इनके उदाहरण देकर यह कहता है कि आप उदार हैं। आपने हठ से पापियों को तारा है।
 
यहाँ जिस खग की बात की गई है वह जटायु है। रामकथा में जटायु नाम का एक गिद्ध था। जब रावण सीता का हरण करके लंका के लिए ले जा रहा था तब सीता की आवाज सुनकर जटायु उनकी मदद करने के लिए आता है। रावण से युद्ध करते हुए वह घायल हो जाता है। अंत में रावण को खोजते हुए राम वहाँ पहुँचते हैं। तब जटायु राम को सारी सूचना देकर अपने प्राण त्याग देता है।
 
मृग शब्द रावण के मामा के लिए प्रयुक्त किया गया है। रावण ने सीता का हरण करने के लिए अपने मामा मारीच को छद्म वेश में छलने के लिए भेजा। वह मामा मारीच राम के हाथों मारा जाता है। इस प्रकार राम के हाथों उसका भी उद्धार हो जाता है। 



व्याध शब्द बहेलिया के लिए प्रयुक्त किया गया है। इस बहेलिया शब्द के द्वारा, बाल्मीकि और उस बहेलिये की बात की गई है जिसने कृष्ण पर बाण चलाया था। उन दोनों का उद्धार भी प्रभु राम और कृष्ण ने किया। इस प्रकार कवि ने व्याध का उदाहरण दिया है।
 
पषान का अभिप्राय पत्थर से है। जब गौतम ऋषि ने अहिल्या को श्राप दिया तो वह पत्थर की बन गई। प्रभु श्रीराम वन के मार्ग में जाते समय उस पत्थर का स्पर्श करते हैं। प्रभु के स्पर्श से अहिल्या श्राप मुक्त हो जाती है।
 
नारद मुनि के अभिशाप के कारण कुबेर के पुत्र एक जुड़वाँ वृक्ष बनकर गोकुल में पैदा हुए। भगवान कृष्ण ने ऊखल बंधन के समय उनका उद्धार किया था।
 
म्लेच्छ देश का एक प्रतापी राजा था जिसका नाम कालयवन था। जिसे कृष्ण के वध के लिए कंस ने बुलाया था लेकिन मुचुकंद नामक राजा के द्वारा उसका वध करा दिया। इस प्रकार उसका भी उद्धार कर दिया।
 
इस प्रकार इन उदाहरणों से यह सिद्ध करने का प्रयास किया गया है कि भगवान कितने दयालु हैं। जो भी भगवान के शरण में गया भगवान से उसे अपना लिया है। ये घटनाएँ यह सिद्ध करती हैं कि प्रभु दीनों का उद्धार करने वाले हैं।

प्रश्न. 'तुलसीदास के पद' के प्रथम पद में श्री राम और सीता के विवाह के अवसर पर क्या हो रहा था और सीता जो दुल्हिन के रूप में थी, उसकी क्या अवस्था थी? इनको स्पष्ट कीजिए।
 
उत्तर- परम संत तुलसीदास जी ने कवितावली के अयोध्याकांड से उद्धृत पद में श्री राम और सीता के विवाह का वर्णन किया है। मंदिर में श्री राम दूल्हा के रूप में और सीता दुल्हिन के रूप में शोभायमान हैं। ऐसे शुभ अवसर पर सब (नर-नारी) मिलकर खुशी के गीत गा रहे हैं। युवक वेदपाठी विप्रों के संग वेदपाठ कर रहे हैं। श्री राम के पास बैठी सीता अपने कंगन के नग में श्री राम के चेहरे की पड़ती परछाईं को एकटक होकर देख रही हैं। सीता जी एकटक होकर वह प्रतिबिंब नग में देखती रहीं और एक पल के लिए भी नहीं हिली। उस समय वे अपनी सब सुध भूल कर श्री राम का सुंदर मुखड़ा निहारती रहीं।
 
प्रश्न. 'तुलसीदास के 'पद' पाठ के दूसरे पद में तुलसीदास जी ने श्री राम के वन-गमन के दृश्य को कैसे प्रस्तुत किया है?
 
उत्तर- 'तुलसीदास के पद' पाठ के दूसरे पद में राम-भक्त तुलसीदास जी ने अपने इष्ट देव श्री राम के वन गमन के दृश्य को बड़े अनोखे ढंग से प्रस्तुत किया है। ऐसा लगता है कि श्री राम निर्मोही थे। उन्हें धन दौलत और राज्य में कोई आसक्ति नहीं थी। पिता की आज्ञा से उन्हें 14 वर्ष के लिए वन जाना था। एक दिन उनके राज्य - तिलक की घोषणा हुई और दूसरे दिन वे सब कुछ छोड़ वन-गमन के लिए प्रस्थान करने लगे। उन्होंने राजसी वस्त्र और आभूषण उतार दिए। जैसे काई के हट जाने से स्वच्छ जल अति सुंदर लगता है, ऐसे ही श्री राम शोभायमान हो रहे थे। श्री राम ने उस समय अपने माता-पिता और दूसरे सगे-संबंधियों जिनसे प्रेम का बंधन था त्याग किया। वन जाते समय वे अपने साथ अपनी पत्नी सीता और भाई लक्ष्मण को लेकर चले। ऐसा लगता था कि जैसें वे दो दिन के लिए अवध में मेहमान थे। दो दिन का अतिथि यानी सत्कार स्वीकार कर वे चले गए। उन्होंने अपने पिता का घर और अयोध्या का राज्य ऐसे छोड़ दिया, जैसे कोई पथिक (राही) थोड़ी देर रुककर आगे चल देता है। राजीवलोचन श्रीराम निर्मोही थे।"राजीव लोचन राम चले तजि बाप को राज बटाऊ की नाईं। " 

प्रश्न. तीसरे पद में परम संत, राम भक्त तुलसीदास जी ने अपने इष्ट देव के प्रति अनन्य भक्ति को किस प्रकार प्रकट किया है? 

उत्तर- परम संत, महाकवि तुलसीदास जी भगवान श्री राम के अनन्य भक्त थे। श्री राम उनके इष्ट देव थे। तुलसीदास जी को श्री राम पर पूरा भरोसा था। वे श्री राम की चरण/शरण में रहकर खुश व सुखी थे। वे किसी अन्य देवी-देवता की पूजा में विश्वास नहीं रखते थे। वे मानते थे कि श्री राम का पवित्र नाम पतितों का उद्धार करने में सक्षम्य है। वे यह भी मानते थे कि उनके इष्ट देव को गरीब और दुखी बहुत प्यारे लगते थे। उन्होंने अपने प्यारे भक्तों की रक्षा का जो विरद लिया है, उसके लिए उन्होंने नीच-से-नीच लोगों का उद्धार किया है। कोई और दूसरा देवता ऐसा नहीं कर सकता। श्री राम इतने दयालु और कृपालु हैं कि उन्होंने खग (पक्षी जटायु), मृग (सोने के रूप वाला हिरण बना मारीच) व्याध अर्थात शिकारी, पत्थर बनी अहिल्या, पेड़, मनुष्य और देवता तारे। अंत में परम संत तुलसीदास जी कहते है कि देव, राक्षस, मुनि, नाग और मनुष्य सब माया के अधीन पड़े हैं। वे बेचारे हैं। मैं इनमें से किसी एक की आराधना करके अपनापन या आत्मीयता नहीं खोना चाहता। मेरे तो केवल एक ही इष्ट देव श्री राम हैं। मैं उनकी चरण/शरण छोड़कर अन्य कहीं नहीं जाना चाहता। वे मेरे इष्ट देव हैं और मैं उनका अनन्य भक्त हूँ। मुझे उन पर पूरा विश्वास है।
 
प्रश्न. प्रेममार्गी शाखा के कवि तुलसीदास के इष्ट देव कौन हैं और उनके प्रति उनका कैसा प्रेम है? स्पष्ट कीजिए।

उत्तर- ज्ञानमार्गी शाखा के कवि परम संत कबीरदास जी हुए हैं। वे निर्गुण भक्ति के उपासक थे। सगुण भक्ति की प्रेममार्गी शाखा के कवि सूरदास और तुलसीदास हुए हैं। सूरदास के इष्ट देव श्री कृष्ण थे और तुलसीदास जी के इष्ट देव श्री राम थे। परमसंत तुलसीदास जी ने अपने इष्ट देव श्री राम को सर्वेश्वर माना है। उन्होंने खग, मृग व्याध, पेड़, मनुष्य और देवता तार दिए। 

"खग, मृग, व्याध, पषान, विटप जड़ जवन कवन सुरतारे।" तुलसीदास जी मानते हैं कि मनुष्य, मुनि, ऋषि, देवी, देवता, राक्षस सब माया के वश हैं। पर तुलसी के राम सर्वोपरि हैं। उनकी चरण/शरण छोड़कर तुलसीदास जी अन्य किसी का आश्रय नहीं ले सकते। उनके राम सर्वेश्वर हैं।
 
प्रश्न. 'राजिव लोचन रामु चले तजि बाप को राज बटाऊ की नाईं' उपर्युक्त पंक्ति में श्री राम के किस गुण को उजागर किया गया है?
 
उत्तर- 'श्री राम' तुलसीदास जी के इष्ट देव हैं। वे उनके आदर्श पुरुष हैं। वे एक आदर्श पुत्र, आदर्श भाई और आदर्श पति थे। वे एक आदर्श प्रजापालक थे। उपर्युक्त पंक्ति में परम संत तुलसीदास जी ने श्री राम के एक महान गुण 'निर्मोही' होने पर प्रकाश डाला है। वे कर्तव्यपरायण होते हुए भी निरासक्त थे। 'बटाऊ' का अर्थ है 'पथिक', 'राही'। उन्हें राजा बनना था। राजगद्दी पर बैठने से पूर्व अयोध्या में तैयारियाँ आरंभ हो गई थीं। चारों ओर खुशियों का वातावरण था। अचानक माता कैकेई और पिता दशरथ के आदेश से उन्हें 14 वर्ष के लिए वन जाना था। उन्हें आदेश का पालन करना था। घर के सुख, राज्य-सुख की उन्हें कोई इच्छा नहीं थी। वे निर्मोही थे। ऐसा लगता था कि वे अवध में दो दिन के लिए मेहमान थे। उन्होंने खुशी-खुशी राजसी वस्त्र छोड़े। वे एक वनवासी की तरह अपनी पत्नी सीता एवं भाई लक्ष्मण के साथ अयोध्या से बाहर निकले। जीवन में कुछ भी हो सकता है। श्री राम ने संसार के सम्मुख एक आदर्श रखा कि मनुष्य को सदा हर परिस्थिति के लिए तैयार रहना चाहिए। उसे सुख-दुख में 'सम' रहना चाहिए। पिता की आज्ञा को शिरोधार्य कर श्री राम चौदह वर्ष के लिए वन में रहे। वहाँ भी उन्होंने जो धीरज और अदम्य साहस का परिचय दिया वह प्रशंसनीय है। उन्होंने कभी कोई शिकायत या उलाहना नहीं दिया। उनका जीवन धन्य है। उनका जीवन हमारे लिए एक आदर्श उपस्थित करता है।
 
प्रश्न. 'राम को रूप निहारति जानकी, कंकन के नग की परछाहीं।' यातें सबै सुख भूलि गई कर टेकि रही, पल टारत नाहीं।' उपर्युक्त पंक्तियों को स्पष्ट कीजिए।
 
उत्तर- प्रस्तुत पंक्तियाँ परम संत तुलसीदास जी की कवितावली के बालकांड से ली गई हैं। इन पक्तियों में विवाहमंडप पर बैठे दूल्हा-दुल्हिन-श्रीराम और सीता का वर्णन है। सीता अपने पास बैठे श्री राम के मुख की छवि अपने कंगन के नग में पड़ी परछाईं में देख रही हैं। श्री राम का मनमोहक मुख देख सीता जी ऐसी मुग्ध हो गईं कि वे अपने हाथ को बिना हिलाए एक टक देखती रहीं। वे अपनी सुध-बुध भूल सुंदर रूप के दर्शन करने में ही तन्मय हो गईं। इन पंक्तियों में भगवान श्री राम के सुंदर मुख एवं सीता जी की तन्ययता पर प्रकाश डाला गया है। ऐसा वर्णन विवाहमंडप के अनूठे चित्र प्रस्तुत करता है। विवाहमंडप पर वेद-मंत्रों का उच्चारण हो रहा है। पंडित और युवक मिल कर वेद-पाठ कर रहे हैं। नर-नारी सब मिलकर विवाहोत्सव के अवसर पर खुशी के गीत गा रहे हैं। सीता जी यह सब भूलकर, बिना हाथ हिलाए, एक टक श्री राम के सुंदर रूप के दर्शन कर रही हैं। 

प्रश्न. तुलसीदास ने अपने काव्य के माध्यम से राम के रूप में एक आदर्श चरित्र को उभारने का प्रयास किया है। संकलित पदों के आधार पर उक्त कथन पर प्रकाश डालिए । 

उत्तर- तुलसीदास रामोपासक सगुण काव्य धारा के सर्वाधिक सशक्त कवि हैं। उन्होंने भगवान राम के मर्यादा पुरुषोत्तम तथा भक्तवत्सल स्वरूप का खुलकर वर्णन किया।उन्होंने प्रमाणित किया है कि राम का चरित्र हम सभी के लिए एक आदर्श चरित्र है। यदि हम सभी उनके आदर्शों पर चलेंगे तो इस समाज और विश्व में सभी प्रकार के पाप नष्ट हो जाएँगे और आज भी राम राज्य स्थापित हो सकेगा।
 
तुलसीदास जी के राम का चरित्र अनुकरणीय है। उनका चरित्र उनके सौन्दर्य दयाभाव, निरासक्तिभाव आदि गुणों से युक्त है । कवि ने अपने पद में प्रभु राम और सीता के विवाह का वर्णन करते हुए कहा है कि लोगों के उपस्थित होने के कारण सीता जी प्रभु के सौन्दर्य को सीधे- सीधे नहीं निहार सकतीं, पर सीताजी अपने कंगनों के नगों में प्रभु श्रीराम की परछाई को एकटक देख रही हैं इस प्रकार तुलसीदास के राम बड़े ही मोहक सौन्दर्य वाले हैं, क्योंकि सीताजी प्रभु राम के सौन्दर्य को देखते समय सब कुछ भूल जाती हैं।'यातें सबै सुधि भूलि गई कर टेकि रही पल टारत नाहीं'।
 
तुलसीदास के राम अद्वितीय सुन्दर और विनम्र भी हैं। प्रभु राम की विनम्रता का उदाहरण देते हुए कवि ने कहा कि- श्रीराम अपने राजसी वस्त्रों को त्यागकर वन की ओर प्रस्थान करने के लिए जाने लगते हैं। तब वे अपने परिवार वालों से बड़े ही स्नेह से विदा लेते हैं । कवि ने उनकी विनम्रता और धैर्य को इस प्रकार वर्णित किया है- 'मातु-पिता प्रिय लोग सबै सनमानी सुभायै सनेह सगाई।'
 
कवि तुलसीदास ने राम के चरित्र में निर्लिप्त और निर्विकार होने के गुण को एक आदर्श रूप में देखा है। जब उन्हें वन जाने की आज्ञा मिलती है तो वे राजसी वस्त्र और आभूषणों के साथ-साथ पिता के साम्राज्य को इस प्रकार त्याग कर चल देते हैं जैसे कोई यात्री (पथिक) किसी स्थान पर कुछ देर ठहरकर बिना मोह किए वहाँ से चल देता है- 'राजिव लोचन रामु चले तजि, बाप को राज बटाऊ की नाईं । कंप का के तुलसीदास जी प्रभु राम की दयालुता का वर्णन करते हुए यह कहते हैं कि हे प्रभु ! आप जैसा लोगों का उद्धार करने वाला, दीनों से प्रेम करने वाला दूसरा दुर्लभ है। कवि कहता है कि प्रभु की शरण को छोड़कर किसी दूसरे स्थान की कल्पना भी नहीं की जा सकती- 'जाऊँ कहाँ तजि चरन तुम्हारे काको नाम पतित पावन जग केहि अति दीन पियारे।' तुलसीदास जी मानते हैं कि प्रभु श्रीराम ही एकमात्र ऐसे देव हैं जिनका नाम पतित पावन है। वे हठपूर्वक अधमों और नीचों को मुक्ति देते हैं, जिन पर प्रभु राम की कृपा हुई है, उन्होंने इन जैसे न जाने कितने पतितों को पवित्रता प्रदान करके उनका कल्याण करते हुए उन्हें मुक्ति दी है। विटप जड़, "खग, मृग, व्याध, पषान, जवन- कवन सुर तारे ।तुलसीदास का कहना है कि यदि प्रभु राम की कृपा हो जाए तो इन सबका उद्धार सम्भव है-खग (जटायु), मृग (मारीच), व्याध (वाल्मीकि), पषाण (अहिल्या), विटप जड़ (यमलार्जुन) व अन्य कई राक्षस आदि का प्रभु ने उद्धार किया। कवि तुलसी स्वयं को भी ऐसे ही आराध्य देव के हवाले करना चाहते हैं जो कि पतित-पावन और भक्त वत्सल हो।
 
तुलसी ने प्रभु राम को एक कल्याणकारी देव के रूप में स्वीकार किया है। उनका मानना है कि उनके आराध्य प्रभु 
राम अपने भक्तों के गुण-अवगुण नहीं देखते। वे अपनी शरण में आये किसी भी भक्त या साधक का कल्याण करने का प्रण ले लेते हैं।
 
इस तरह तुलसीदास ने अपने काव्य में राम के सौन्दर्य से लेकर उनकी विनम्रता, दयालुता, निर्लिप्त व निर्विकार भाव तथा भक्तवत्सलता आदि का वर्णन करते हुए समाज के समक्ष राम के आदर्श चरित्र को प्रस्तुत करने का प्रयास किया है, जिसमें वे पूरी तरह से सफल हुए हैं। 


विडियो के रूप मे देखिये -
 


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२. किसी की भावनाओं को आहत करने वाली टिप्पणी न करें .
३. अपनी वास्तविक राय प्रकट करें .

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