सब के लिए
बात इतनी पुरानी है कि वे शब्द , जो उसे बयान कर सकते , अब हर भाषा के शब्द-कोष से खो चुके हैं । बात इतनी नई है कि उसे बताने के लिए जो अभिव्यक्ति चाहिए वह अभी किसी भी भाषा में ईजाद ही नहीं हुई है । इसलिए मजबूरी में अब मुझे उपलब्ध शब्दों से ही काम चलाना पड़ रहा है ।सुशांत सुप्रिय |
वह माँ थी तो मकान घर था । वह बहन थी तो भाइयों की कलाइयों पर राखी थी । वह बेटी थी तो घर में रौनक़ थी । वह पत्नी थी तो थाली में भोजन था , जीवन में प्रयोजन था ।
अकसर उसके मन के पके घाव उसकी आँखों में से बाहर झाँक रहे होते । उसके घुटनों पर दर्द का शिशु झूल रहा होता । उसके मन का आकाश जब भर आता तो वह उसी पर बरस पड़ता । चिड़िया की चोंच में भरा होता है जितना जल , बस उतनी ही ख़ुशी थी उसके जीवन में ।
एक दिन पुरुष घर आया पर उसे स्त्री कहीं नहीं दिखी । दरअसल स्त्री घर बन गई थी अपने पति और बच्चों के लिए । दरअसल स्त्री एक फलदार और छायादार वृक्ष बन गई थी पुरुष के लिए । दरअसल स्त्री रोटी बन गई थी , कपड़ा बन गई थी , बिस्तर बन गई थी , पालना बन गई थी ...लेकिन पुरुष के पास वे आँखें ही नहीं थीं कि वह स्त्री को पहचान पाता ।
यह दुनिया के सारे पुरुषों की कथा है । यह दुनिया की सारी स्त्रियों की व्यथा है ...
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प्रेषकः सुशांत सुप्रिय
A-5001 ,
गौड़ ग्रीन सिटी ,
वैभव खंड ,
इंदिरापुरम ,
ग़ाज़ियाबाद -201014
मो: 8512070086
ई-मेल : sushant1968@gmail.com
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