सच कड़वा होता है/विचार मंथन

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सच कड़वा होता है

मनोज सिंह
आमिर खान एक बार फिर चर्चा में हैं। इस बार भी उन्होंने हैरान किया है। 'लगान', 'तारे जमीं पर', 'पीपली लाइव' और अब 'सत्यमेव जयते'। हर बार की तरह उन्होंने पुनः प्रदर्शित किया कि अश्लीलता और सनसनी को बेचने की आपाधापी के बीच सामाजिक सरोकार के विषयों के माध्यम से भी लोकप्रिय हुआ जा सकता है। और हम सोचने के लिए मजबूर हुए हैं। यह सदा एक बड़ा प्रश्नचिन्ह बनकर बाजार के ठेकेदारों को हैरान-परेशान करता होगा। इल्जाम लगाने वालों से प्रश्न किया जाना चाहिए कि अगर सामाजिक मुद्दों को बेचने की कला में आमिर और उसके साथी सफल हैं तो इसे दूसरों के द्वारा भी क्यों नहीं हथिया लिया जाता? एक फिल्म के सफल हो जाने पर जिस देश में उसी कहानी पर सैकड़ों फिल्में बन सकती हों, जहां जुड़वा भाई फिल्मों में बिछुड़कर और फिर नाटकीय ढंग से मिलकर दसियों साल तक बॉक्स ऑफिस पर पैसा लूट रहे हों, यही नहीं जहां पुरानी सफलतम फिल्मों की रिमेक तक बनाकर करोड़ों कमा लिये जाते हों, ऐसी अजीबोगरीब दुनिया में इस मुद्दे को लपकने से कौन रोक सकता है? यहां सबसे बड़ी बात कि मनोरंजन और हास्य के नाम पर आज की फूहड़ता, नग्नता, बेहूदगी, व्यंग्य और मजाक की आड़ में द्विअर्थी संवाद और इन सबके केंद्र में कामुकता की चमक और शोर-गुल में आमिर की सौम्यता, शालीनता, सौहार्दपूर्ण व्यवहार, गंभीरता और परिपक्वता आकर्षित करती है। वे इस मामले में किंवदंती माने जाने चाहिए कि जिस समाज में बच्चा मां-बाप की नहीं सुनता, शिष्य गुरु और युवा बुजुर्गों के अनुभवों से सीख नहीं लेना चाहता हो, उलटे उन्हें तिरस्कृत करता हो, वहां उन्हें सुनने के लिए लोग तैयार ही नहीं, उत्सुकतापूर्ण इंतजार भी कर रहे हैं, यह क्या कम है!! कहने वाले कह सकते हैं कि इस तरह की बातें, इन विषयों पर बोलने वाले सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक एवं अन्य लोगों की कमी नहीं, मगर प्रचार-प्रसार की कमी की वजह से उन्हें कोई सुनता नहीं। और आमिर खान के सितारा होने के कारण ही वे सुने जाते हैं। मगर फिर इस तथ्य को भी नहीं ठुकराया जा सकता कि आमिर को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाने, सितारा बनाने में, उनकी इन्हीं भूमिकाओं का बहुत बड़ा योगदान रहा है। और फिर यहां सवाल पूछने की जगह खुश होना चाहिए, चूंकि सितारों से सामाजिक सरोकार से जुड़ने की अपेक्षा सदा की जाती रही है। वरना ऐसे उदाहरण हिन्दी फिल्म जगत से लेकर खेल और अन्य प्रसिद्धी के क्षेत्रों में कहां दिखाई देते हैं? उलटा हालात इतने बिगड़ चुके हैं कि लोकप्रियता भुनाने के लिए बाजार सितारों को रोज बेचता है ओर ये रोज खुशी-खुशी बिकते हैं। और दिनभर तेल-साबुन-पेंट से लेकर हर कुछ बेचते देखे जा सकते हैं। विज्ञापनों से समाज पर क्या असर हो सकता है, इससे इन्हें कोई मतलब नहीं होता, उलटा ये बड़ी चतुराई से हमारे आदर्श भी बना दिये जाते हैं। ये अपने स्वार्थवश व्यापार और राजनीति में भी गठजोड़ और घुसपैठ कर सकते हैं मगर अपने प्रशंसकों के हित के लिए कुछ भी करते नहीं देखे जा सकते। हां, यहां कुछ हद तक अमिताभ बच्चन का नाम लिया जा सकता है। जिन्होंने 'कौन बनेगा करोड़पति' के माध्यम से, सभ्यता एवं संस्कृति के दायरे में रहते हुए, रोचक ढंग से ज्ञान को विस्तार देने का कार्य किया है। उन्होंने गाहे-बगाहे साहित्य में भी रुचि दिखाई है। वरना चारों ओर अन्य सभी भांति-भांति से सिर्फ लूटते नजर आते हैं। यहां आलोचकों के लिए आमिर खान भी सामाजिक मुद्दों को बेचकर करोड़ों कमाते नजर आ सकते हैं, मगर फिर वे अपनी जमीर व इंसानियत को बनाये हुए हैं और धंधे के नाम पर कुछ भी करने और बेचने को तत्पर दिखायी नहीं देते। कम से कम उनके उद्देश्य पर यहां प्रश्नचिन्ह तो नहीं लगाया जा सकता। आज के दौर में कोई पैसा लेकर भी सकारात्मक बना रहे तो बड़ी बात है।
आमिर खान ने शुरुआती एपिसोड से ही दर्शकों में अपनी पैठ बना ली है। रविवार को छुट्टी वाले सुस्ती के दिन भी इस कार्यक्रम ने लोगों में उत्सुकता पैदा की है। अचानक बंद हो चुके धारावाहिक 'चंद्रगुप्त' के दर्शकों के लिए यह एक अच्छे विकल्प के रूप में प्रस्तुत हुआ है जो अपने मनपसंद ऐतिहासिक कार्यक्रम के बिना निरुद्देश्य समय गुजारा करते थे। अगले हफ्ते कौन-सा मुद्दा आमिर उठायेंगे इस बात की उत्सुकता रहती है। यहां मुझे 'सत्यमेव जयते' शीर्षक से आपत्ति तो नहीं मगर इस संदर्भ में कुछेक प्रश्न अनायास ही मन में उठ रहे हैं। यहां इस आरोप को मैं उचित नहीं मानता कि 'सत्यमेव जयते' शब्द की लोकप्रियता का लाभ उठाने का प्रयास किया गया है। ऐतिहासिक लोकोक्तियां, मुहावरे आदि पर किसी का एकाधिकार नहीं है और इसे अपने-अपने तरीके से उपयोग करने से नहीं रोका जा सकता। मगर मैं यहां कार्यक्रम के भावार्थ से संदर्भित हूं। 'सत्यमेव जयते' का सीधे-सीधे अर्थ है सत्य की जीत। मगर आमिर तो अपने कार्यक्रम में समाज के उस सच को बता रहे हैं जो नंगा एवं कड़वा है। जिसकी हम जीत नहीं चाहते। बल्कि उस पर अपनी जीत और नियंत्रण चाहते हैं। बहरहाल, यहां इसे समाज को सही दिशा की ओर प्रोत्साहित करने के लिए प्रेरणादायक कथन के रूप में लिया जा सकता है।
हमेशा की तरह सामाजिक-यंत्र-जालों एवं पत्र-पत्रिकाओं में इस पर चर्चा और आलोचना शुरू हो चुकी है। खुशी इस बात की है कि शुरुआती आलोचना, वो भी उन कुछ एक तथाकथित लोगों के द्वारा, जिन्हें हर मुद्दे पर रोते-पीटते-चिल्लाते देखा जा सकता है, के अतिरिक्त कुछ विशेष नकारात्मक टिप्पणी नहीं मिली। शुक्र है कि इस अच्छे-खासे सीधे-सरल कार्यक्रम को सामाजिक एवं पारिवारिक मुद्दों से जुड़े कुछ भौंडे और गाली-गलौज से भरे अन्य धारवाहिकों से तुलना करने की बातें भी आगे नहीं बढ़ पायीं। आमिर द्वारा उठाये गये मुद्दों ने मुझे आकर्षित किया है। यूं तो अभी तक लिये गये दोनों विषयों पर आमिर खान ने सीधे-सीधे बहुत कुछ कहने की कोशिश की लेकिन न जाने क्यों संपूर्णता का आभास नहीं हुआ। कहीं कुछ छूट रहा है ऐसा प्रतीत होता है। फिर मिस्टर परफेक्शनिस्ट आमिर खान से ऐसी उम्मीद तो की ही जा सकती है। कन्या भ्रूण-हत्या के मामले में आमिर खान स्पष्ट रूप से यह बताने से क्यों और कैसे चूक गये कि इसके लिए बहुत हद तक स्वयं नारी, फिर चाहे वो जिस रूप में हो, जिम्मेवार है। फिर दिखाये गये पात्र की जीवन-कहानी में एक पक्ष को सुनकर निष्कर्ष निकालना भी उचित नहीं। वो भी तब जब मुद्दे न्यायालय में लंबित हों। बहरहाल, इस चर्चा में बेतहाशा बढ़ती जनसंख्या के नियंत्रण के मुद्दे को पूरी तरह अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए। हां, भ्रूण को गर्भ में सिर्फ नर या नारी होने के कारण गिरा देना कदापि उचित नहीं। लेकिन इस बढ़ती अनियंत्रित भीड़ के बीच एक भूखे अभावग्रस्त जीव को दुनिया में लाना क्या उचित होगा? वो भी उस समाज में जहां नर-नारी के मिलन को सदैव जनन से जोड़कर रखा गया हो। ऊपर से जिस मुद्दे पर धर्म भी बेहद खतरनाक रोल में उपस्थित हो। ऐसे में भविष्य की भयावह तस्वीर उभकर आती है। दूसरे कार्यक्रम के संदर्भ में बात करें तो बाल यौन-शोषण पर गंभीर चर्चा करने के दौरान हम यह भूल जाते हैं कि ऐसा करके कहीं हम अपने प्राकृतिक सामान्य व्यवहार को संशयित व भ्रमित तो नहीं कर रहे? बहुत अधिक ज्ञान के साथ अति सतर्कतापूर्ण जीवन सब कुछ नीरस कर देता है। जबकि सत्य यह है कि बच्चे सदैव आमजन को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। उनके साथ खेलना, बातें करना, उन्हें लाड़-दुलार करना हर दूसरे सामान्य व संवेदनशील व्यक्ति को पसंद है। अब ऐसा करने पर हर एक को जाने-अनजाने ही सतर्क होना पड़ेगा। कोई गलत सोच सकता है, ऐसे विचार मन में अनायास ही आ सकते हैं। मां-बाप बच्चों से प्यार करने वाले हर बुजुर्ग को शक की निगाह से देख सकते हैं। इस चक्कर में मासूम बच्चे कई रिश्तों के निश्छल प्यार से वंचित हो सकते हैं। आज की पीढ़ी कृत्रिम एवं प्राकृतिक के बीच की महीन अंतर को समझ नहीं पाती, उलटे शब्दों को अक्षरशः पालन करने के चक्कर में जीवन-मूल्यों को नष्ट कर देती है। इससे सामान्य धड़कनें भी मशीनजनित उत्पन्न होती प्रतीत होती है। हम किसी एक अनिष्ट की आशंका में अपना तमाम जीवन संशय और भय में बीता ले जाते हैं। हमें याद रखना होगा ये समस्याएं समाज में आदिकाल से हैं। हर युग ने अपने-अपने समय में इनका अपने-अपने ढंग से सामना किया है। हमें भी अपने समय की युक्तियों को ढूंढ़ना होगा। मगर बहुत अधिक समझ-बूझकर। अब जबकि आमिर खान पथ-प्रदर्शक के रूप में प्रस्तुत हो रहे हैं तो उन्हें अपने विचारों को व्यापक एवं बृहद् दृष्टिकोण प्रदान करना होगा। यहां और अधिक सतर्कता की आवश्यकता है। छोटी-सी चूक भी भ्रम पैदा कर सकती है। उदाहरणार्थ गलत चरित्रों का चयन कई प्रश्न खड़े कर सकता है। जैसा कि पिछले कार्यक्रम में उपस्थित एक व्यक्ति का किसी दूसरे कार्यक्रम में भिन्न संदर्भ में उपस्थित होना बुद्धिजीवियों के बीच चर्चा का विषय है।
आमिर आम जनता को कड़वे सच का सामना कराने के साथ-साथ अपने साथी सितारों को भी सीख देने का काम कर रहे हैं, जो मनोरंजन को पूरी तरीके से व्यावसायिक बना चुके हैं और अपनी लोकप्रियता को स्वार्थसिद्धि के लिए किसी भी हद तक उपयोग करने लिए तैयार हैं। इसमें कोई शक नहीं कि आमिर ने स्वयं को भविष्य के पन्नों में भी दर्ज कर लिया है और वे काफी समय तक याद किये जायेंगे। वरना लोकप्रियता के शिखर पर बैठे सातवें आसमान के सितारों को अपना हश्र एक ही जीवन में इसी जमीन पर गिरकर देखने को मिल जाता है। आज कई ऐसे बड़े सुपर-स्टार हिंदी जगत में जीवित हैं, जिनके लिए आज की पीढ़ी के पास वक्त नहीं। अगर उन्होंने भी अपने स्वर्णिम काल में कुछ सामाजिक पुण्य बटोरे होते तो वे पलटकर अब सामने आते। 
 
यह लेख मनोज सिंह द्वारा लिखा गया है.आप ,कवि ,कहानीकार ,उपन्यासकार एवं स्तंभकार के रूप में प्रसिद्ध है .आपकी 'चंद्रिकोत्त्सव ,बंधन ,कशमकश और 'व्यक्तित्व का प्रभावआदि पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है .
 

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  1. बेनामीजून 06, 2012 1:46 pm

    सच तो सच ही होता है. बिल्कुल निरपेक्ष. बिना किसी लाग लपेट के.
    चोट तो इंसान के दिल में लगती है, कमी तो उसी की होती है.
    जब वह खुश होता है तो सच प्रिय लगता है और जब वह गलत होता है तो तिक्त.

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