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मजरूह सुल्तानपुरी |
है अब खिज़ां चमन में नये पैरहन के साथ
सर पर हवा-ए-जुल्मन चले सौ जतन के साथ
अपनी कुलाह कज है उसी बांकपन के साथ
बहकर ज़मीं पे है अभी गर्दिश में ख़ूं मेरा
क़तरे वो फूल बनते हैं ख़ाके-वतन के साथ
किसने कहा कि टूट गया ख़ंजरे-फ़रंग
सीने पे ज़ख़्में-नौ भी है दाग़े-कुहन के साथ
झोंके जो लग रहे हैं नसीमे-बहार के
जुंबिश में है क़फ़स भी असीरे’चमन के साथ
'मजरूह' क़ाफ़िले की मेरे दास्तां है ये
रहबर ने मिल के लूट लिया राहज़न के साथ
आपकी रचना यहां भ्रमण पर है आप भी घूमते हुए आइये स्वागत है
उत्तर देंहटाएंhttp://tetalaa.blogspot.com/
मज़रूह साहब की ग़ज़ल पढ़वाने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया
उत्तर देंहटाएंमजरूह की गजल पद्बाने के लिए धन्यबाद .
उत्तर देंहटाएंराम किशोर मृदुल
kaya bat hain , hindi kung ne nayab khajana jama kar ke rakha hain ,
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