अपने ही घर में सम्मान - मनोज सिंह

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सम्मान तो सम्मान ही होता है। चाहे फिर वो किसी भी स्तर का हो। यह हर किसी को चाहिए। छोटा हो या बड़ा, गरीब हो या अमीर, अनपढ़ हो या पढ़ा-लिखा, बूढ़े...

सम्मान तो सम्मान ही होता है। चाहे फिर वो किसी भी स्तर का हो। यह हर किसी को चाहिए। छोटा हो या बड़ा, गरीब हो या अमीर, अनपढ़ हो या पढ़ा-लिखा, बूढ़े-बच्चे-औरत-आदमी। कौन है जिसे सम्मान नहीं चाहिए? प्यार और सम्मान का भूखा हर व्यक्ति होता है। कह सकते हैं कि यह भी एक तरह की प्राकृतिक जरूरत है। यूं तो प्यार की आवश्यकता अधिक महसूस की जाती है, लेकिन कहने वाले कहते हैं कि सम्मान कलाकारों के लिए खून ही नहीं आक्सीजन भी होता है। बिना वाहवाही के कवि/शायर अपने आप को ठगा-सा महसूस करते हैं। वे अपनी रचना की अनदेखी किसी भी कीमत पर बर्दाश्त नहीं कर पाते। आमतौर पर किसी भी रचनाकार के प्रोत्साहन के लिए यह आवश्यक है। विटामिन की तरह काम करता है सम्मान। यह व्यावहारिक तथ्य सामान्य व्यक्ति पर भी बराबर से लागू होता है।
एक कहावत है घर की मुर्गी दाल बराबर। घर में आदमी की पूछ नहीं होती। और हो भी कैसे? कहावते अमूमन बहुत हद तक धरातल पर सही प्रमाणित होती हैं। इसी संदर्भ में एक और कहावत को याद किया जा सकता है कि सितारों को दूर से ही देखना चाहिए, नहीं तो वे भी मिट्टी के पाये जाते हैं। इसी बात को सत्यापित कर चरितार्थ करते हुए यह आमतौर पर देखा गया है कि बड़े से बड़ा बुद्धिमान व्यक्ति, प्रसिद्ध कलाकार, रईस उद्योगपति, लोकप्रिय सितारा, सफल राजनेता घर में आम आदमी की तरह ही होता है। फिर इसमें गलत भी कुछ नहीं है। आदमी अपने ही घर में बड़प्पन और रईसी दिखाने लगे, लोकप्रियता की शेखी बघारने लगे तो जीवन चल चुका। सफलता का अहम्‌ घर पर किसको दिखाना? ठीक ही तो है। कोई चाहे जितना भी बड़ा हो, घर-परिवार में अपने मां-बाप के लिए तो सदा लाड़ला और मासूम-सा बच्चा ही बना रहता है। पत्नी के लिए पति और बच्चों के लिए पिता। जो उसे अंगुली पकड़कर चलाता है, गोद में उठाकर खिलाता है, बाजार घुमाने ले जाता है, अच्छी-अच्छी चीजें दिलाता और मनपसंद स्वादिष्ठ खाना खिलाता है। यहां पर रिश्तों की मधुरता होती है। अपेक्षाएं और निर्भरता तो होती है, मगर अपनत्व में डूबी होती है। दोस्तों के बीच का संबंध तो कमाल का होता है। अनोखा। खासकर बचपन की दोस्ती। एक-दूसरे को पूरी तरह से अपने मूल रूप में जानते हुए पहचानते हैं। जहां इंसान बाहरी आडम्बर से परे सीधे दिल से जुड़ा होता है। ऐसे कई संबंध होते हैं जहां व्यक्ति सिर्फ दोस्त होता है, प्रेमी होता है, भाई (बहन) होता है, इसके अतिरिक्त लेखक, अधिकारी और कलाकार कुछ नहीं होता। ऐसे में इन संबंधों के बीच में सम्मान की भावना कहां और कैसे उत्पन्न हो सकती है? प्रेम तो हो सकता है, आत्मीयता तो होती ही है, मगर इज्जत नहीं होती। यहां तो उलटा डांट पड़ सकती है। मखौल भी उड़ाया जा सकता है। नाराजगी भी जाहिर की जा सकती है। इसका कारण भी है, आपकी कमजोरियों को वह अच्छी तरह जानते हैं। मगर हेय दृष्टि या द्वेष नहीं होता, उलटे जीवन की सत्यता की मौन स्वीकृति होती है। और सबसे महत्वपूर्ण है कि दुर्भावना कभी नहीं होती।
उपरोक्त वर्णित रिश्तों में प्रेम होता है। भरपूर। मगर सम्मान वाली बात आमतौर पर नहीं होती। कहा जा सकता है कि प्रेम के रहते सम्मान की भावना पैदा नहीं हो सकती। कहने वाले कह सकते हैं कि सम्मान में भी प्रेम होता है और प्रेम करते-करते भी किसी को सम्मान की दृष्टि से देखा जा सकता है। मगर सत्य यह है कि सम्मान आने पर, या होने पर, निश्छल प्रेम नहीं हो सकता। ये आपस में एक-दूसरे को विस्थापित करते प्रतीत होते हैं। चूंकि हर एक को दोनों चाहिए, इसलिए एक का प्रतिशत बढ़ते ही दूसरा यंत्रवत्‌ कम होने लगता है। कमाल की व्यवस्था है। मगर यह एक व्यावहारिक सत्य है।
विगत सप्ताह अपने ही कॉलेज के पूर्व छात्रों के संगठन द्वारा भारत भवन, भोपाल में मुझे सम्मानित किया गया। एक लेखक होने की हैसियत से। नेशनल इंस्टिच्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, भोपाल के पचास वर्षों के लंबे इतिहास में से पांच छात्रों को चुना गया था। सम्मान प्राप्त करने वालों में पद्मश्री मंजूर-एहतेशाम, बॉलीवुड के राजीव वर्मा और आइसेक के प्रमुख संतोष चौबे भी शामिल थे। ये सभी मेरे ही कॉलेज के पूर्व छात्र हैं। और उम्र में मुझसे कहीं बड़े और अपने-अपने क्षेत्र में विशिष्ट स्थान प्राप्त हैं। इन महान हस्तियों के साथ-साथ मेरा नाम भी होने पर मुझे गर्व और खुशी तो थी मगर साथ ही अंदर ही अंदर एकदम नया एक अजीब-सा अहसास भी था। पता नहीं बाकी कैसा महसूस कर रहे थे? सम्मान तो जीवन में भाग्यवश ईश्वर की कृपा से कई मिले, कुछ चाहे हुए कुछ अनचाहे भी। मुझे इसकी आवश्यकता थी या नहीं, यह दीगर बात है। इस पर स्वयं के साथ अंतर्द्वंद्व हो सकता है। लेकिन यह सम्मान कुछ अलग हटकर था। और हो भी क्यूं नहीं। जब अपने ही सहपाठियों के बीच में अपने ही गुरुओं के सामने सम्मानित किया जाए तो इसे विशिष्ट तो होना ही था। मगर इस अनुभव का शब्दों में वर्णन संभव नहीं। गुरु जो आपके आदर्श रहे हैं, आपके पथप्रदर्शक रहे हैं, आपके लिए परम ज्ञानी हैं, जिनका आपके जीवन में एक विशिष्ट स्थान है, वह आपके द्वारा किये गए प्रशंसनीय कार्यों के लिए खूबसूरत शब्द सुनकर तालियां बजायें, आपकी तरफ गर्व करने वाली विशेष नजरों से देखें, सुनकर व देखकर तो अच्छा लगता है। मगर मेरे दिल पर क्या बीत रही थी, उसकी व्याख्या कर पाना संभव नहीं। वे तमाम दोस्त जो आपको आपके मूल स्वभाव और स्वरूप के साथ जानते हों, अचानक इस तरह रूबरू हों कि वे आपके सामने दर्शकदीर्घा में बैठकर आपके लिए ताली पीटें। आमतौर पर इसे बड़े फख्र के साथ कहा जाता है मगर मुझे कई बार तो झिझक महसूस हुई। सच पूछें तो मुझे अटपटा लगा था। आंखें नहीं मिला पा रहा था। घबराहट भी हो रही थी। झेंप आ रही थी। एक बारगी तो मुझे ऐसा लगा कि मैं अपने दोस्तों से दूर हो रहा हूं। वो दोस्त, जो मुझे छेड़ा करते थे, प्यार से मेरा मजाक उड़ाया करते थे, मुझ पर हंसी-ठिठोली करते थे, आज सभी मौन थे। उनके चेहरे पर मुस्कुराहट तो थी मगर समझ पाना मुश्किल था। यूं तो बीच-बीच में गर्मजोशी से तालियां बजा रहे थे। मगर मुझे उसमें औपचारिकता की बू आ रही थी। यह मेरा शक भी हो सकता है। वो आज मुझे देख तो रहे थे मगर उनकी आंखें बोल नहीं रही थीं। आज उनके मुंह पहले से ही बंद थे। मैंने उनकी नजरों को पढ़ने की कोशिश की थी मगर असफल रहा। मैं नहीं समझ सकता कि उनमें क्या भावना जाग्रत हो रही थी? सिर्फ अनुमान लगाकर कुछ भी कहना गलत होगा। हां, यकीनन नकारात्मक तो नहीं हो सकती, सकारात्मक ही होगी। तालियों की गड़गड़ाहट के बीच में अपने लिये प्रशंसा से भरे शब्द सुनकर अच्छा तो लग रहा था लेकिन न जाने क्यूं कहीं कुछ मैं खो रहा था। सच माने तो शायद मेरा अपना मौलिक व्यक्तित्व या स्वाभाविक पहचान पीछे छूट रही थी। सम्मान ने जो ऊपर चढ़ा दिया था, लगा मानो औपचारिकता में सिंहासन से बांधकर हवा में लटका दिया गया हो। व्यावहारिक बनते-बनते स्वाभाविकता खत्म हो रही थी। वैसे भी ऊपर उठने पर नजरें नीचे ही झुकानी पड़ती है। और कोई माने या न माने मैं स्वयं को दोस्तों से दूर होता महसूस कर रहा था। यहां तक कि कार्यक्रम के बाद भी मैं अपने दोस्तों से लिपट न सका। हमारे बीच में मंच और दर्शकदीर्घा के फासले घुसते जा रहे थे। कार्यक्रम के दौरान कैमरे और फ्लड लाइट की चकाचौंध से वैसे भी मैं सामने अंधेरे में बैठे लोगों के चेहरे को नहीं देख पा रहा था। जबकि वही निगाहें जिन्होंने मुझे अ आ क ख से शुरुआत करते हुए देखा है, जो मेरे सुख-दुःख के साथी रहे हैं, जिन्होंने मेरी हर हार को नजरअंदाज किया हैं, जिन्होंने मेरी बेवकूफियों को झेला है, जिन्होंने मेरी गलतियों को माफ किया, जरूरत पड़ने पर मेरे साथ खड़े हुए हैं, वही आज मेरी सफलता के समय भी साथ थे, मगर वे क्या सचमुच मुझे सम्मान की दृष्टि से देखने लगे थे? हे ईश्वर! अगर यह सच हुआ तो यकीनन प्रेम कम हुआ होगा। और अगर यह गलत है तो फिर उनके द्वारा दिखावा करना उनकी मजबूरी रही होगी। अर्थात दोनों ही तरह से मेरा नुकसान था। शायद मैं अपनी भावना को सही ढंग से व्यक्त नहीं कर पाऊं। इस अनुभव की पीड़ा को सिर्फ सहा ही जा सकता है। शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता है। सम्मान आदमी को अकेला कर देता है। और मैं अकेला कभी खुश नहीं रह सकता। 
सच कहूं तो अपने ही घर में सम्मानित होने के फायदे कम नुकसान ज्यादा हैं। प्रेम की कीमत पर कुछ भी स्वीकार्य नहीं।
 

यह लेख मनोज सिंह द्वारा लिखा गया है.मनोजसिंह ,कवि ,कहानीकार ,उपन्यासकार एवं स्तंभकार के रूप में प्रसिद्ध है .आपकी'चंद्रिकोत्त्सव ,बंधन ,कशमकश और 'व्यक्तित्व का प्रभाव' आदि पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है.

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