देख तो दिल कि जाँ से उठता है।
ये धुआं सा कहाँ से उठता है। ।
गोर किस दिल-जले की है ये फलक।शोला इक सुबह याँ से उठता है। ।
खाना-ऐ-दिल से ज़िन्हार न जा ।कोई ऐसे मकान से उठता है। ।
नाला सर खेंचता है जब मेरा।शोर एक आसमान से उठता है। ।
लड़ती है उस की चश्म-ऐ-शोख जहाँ।इक आशोब वां से उठता है। ।
सुध ले घर की भी शोला-ऐ-आवाज़।दूद कुछ आशियाँ से उठता है। ।
बैठने कौन दे है फिर उस को।जो तेरे आस्तान से उठता है। ।
यूं उठे आह उस गली से हम।जैसे कोई जहाँ से उठता है। ।
इश्क इक 'मीर' भारी पत्थर है।बोझ कब नातावां से उठता है । ।
इश्क इक 'मीर' भारी पत्थर है - मीर तक़ी 'मीर'
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aisaa dhuaan to meer hi uthaa sakate the
उत्तर देंहटाएंऐसा धुआं तो मीर जैसे अज़ीम हस्ती ही उठा सकती थी
उत्तर देंहटाएंbahut hi achhi gajal hai khaas taur pe matla to really ek muhawara ban chuka hai. sachmuch meer saahab ka jawaab nahi, ek request hai kripaya kuchh sheron me kaafiye theek se lipibaddh nahi kiya gaye hain kripaya theek karen
उत्तर देंहटाएंsaadar
Arun Mittal Adbhut
यह मेरी पसन्दीदा गज़ल है ।
उत्तर देंहटाएंकिसी सहृदय के लिए अच्छी रचना पढना कितना पुरसुकून होता है
उत्तर देंहटाएंघज़ब कि ग़ज़ल अचानक मिली ---शुक्रिया
बहुत खूब ---शुक्रिया ---गैबी ताकात है इन कलमों मैं
उत्तर देंहटाएंbhahut khubbb.... meer sahab
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