
हम पंछी उन्मुक्त गगन के
पिंजरबद्ध न गा पाऍंगे,
कनक-तीलियों से टकराकर
पुलकित पंख टूट जाऍंगे।
हम बहता जल पीनेवाले
मर जाऍंगे भूखे-प्यासे,
कहीं भली है कटुक निबोरी
कनक-कटोरी की मैदा से,
स्वर्ण-श्रृंखला के बंधन में
अपनी गति, उड़ान सब भूले,
बस सपनों में देख रहे हैं
तरू की फुनगी पर के झूले।
ऐसे थे अरमान कि उड़ते
नील गगन की सीमा पाने,
लाल किरण-सी चोंचखोल
चुगते तारक-अनार के दाने।
होती सीमाहीन क्षितिज से
इन पंखों की होड़ा-होड़ी,
या तो क्षितिज मिलन बन जाता
या तनती सॉंसों की डोरी।
नीड़ न दो, चाहे टहनी का
आश्रय छिन्न-भिन्न कर डालो,
लेकिन पंख दिए हैं, तो
आकुल उड़ान में विघ्न न डालों।
bachpan mein padhi thi uske baad aaj padhi hai .
उत्तर देंहटाएंyeh bahut achi kavita hai maine 7th class me padhe the aur aj maine ise revise karne ke liye kholi thi
उत्तर देंहटाएंIts wonderful to get it online and have been looking for this one for quite sometime. I vividly remember this poem and is a gem of a piece.
उत्तर देंहटाएंprasansaniya.
उत्तर देंहटाएंvery nice
उत्तर देंहटाएंसुन्दर रचना !
उत्तर देंहटाएं"मैं धरा हूँ "
मैं धरा हूँ
खरा हूँ
अन्न जल से भरा हूँ
श्रद्धा -शीतलता लिए
पवन -गगन संग खड़ा हूँ
भीषण तूफानों में भी
बड़े चट्टान सा पडा हूँ
सप्तरंगी रंगों में मढा हूँ
शोभा -सादगी से जड़ा हूँ
अज्ञानियों के सर चढा हूँ
ज्ञानियों में ज्ञान से भरा हूँ
मैं धरा हूँ ||